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!!!......गंभीरतापूर्वक व् सौहार्दपूर्ण तरीके से अपनी राय रखना - बनाना, दूसरों की राय सुनना - बनने देना, दो विचारों के बीच के अंतर को सम्मान देना, असमान विचारों के अंतर भरना ही एक सच्ची हरियाणवी चौपाल की परिभाषा होती आई|......!!!
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मंडी-फंडी और किसान
मंडी-फंडी हुआ खुला सांड; नकेल डालने को किसानों की सामाजिक संस्थाओं का फिर से खड़ा होना जरूरी!
सार: हजारों सालों से चले आ रहे मंडी-फंडी के किसान के प्रति अन्याय और क्रूरता के रिश्ते का स्थाई इलाज ढूंढने का वक्त आन पहुंचा है| शायद अब भारत को एक फ्रांसीसी क्रांति की जरूरत पड़े; जो कि सिस्टम ही नहीं वरन सिस्टम का माइंडसेट भी बदल डाले|


Description
पुष्यमित्र-शशांक और दाहिर चढ़ आये हैं, किसानों सुध ले लो,
समय रहते ना चेते तो काटेंगे ये इतना, जमाने तक जख्म झेलो|
फिर से बाला या रामलाल बनो, तो कहीं 100000 से 9000 खेलो,
मंडी-फंडी को हो-एक चेताओ, वर्ना कल फिर राई का पहाड़ झेलो||



इस तथ्य को समझने के लिए इतिहास और वर्तमान को मिलाकर भूमिका बांधूंगा| वर्तमान में तो देख ही रहे हैं कि जब से सम्पूर्ण रूप से मंडी-फंडी निर्देशित सरकार आई है किसान की तो जैसे शामत आ गई है| आते ही फसलों के दाम डुबोये, फिर फसल बोने के लिए यूरिया हासिल करने हेतु किसी अपराधी की भांति एक स्वतंत्र लोकतंत्र होते हुए भी पुलिस थानों में यूरिया बंटवाई (जो कि शायद ही विश्व के किसी दूसरे देश में होता हो या कभी हुआ हो), उसके बाद लैंड बिल बदल कर किसान और कमेरे की कमर तोड़नी चाही, जिसके विरुद्ध कि अभी लड़ाई चल ही रही है और जब किसान लैंड बिल पे सरकार के खिलाफ लामबद्ध होते दिखे तो किसान वर्ग की सबसे मजबूत ताकत जाट जाति का ध्यान बंटाने हेतु जाट-आरक्षण रद्द करवा दिया| और अब जाट आरक्षण के बहाने ओ.बी.सी. के बीच ही जिरह छिड़वा दी और आपस में बाँट दिया; ठीक उसी हरियाणवी कहावत को चरितार्थ करते हुए कि, "ला के बण म्ह आग, दमालो दूर खड़ी!" मैं यह नहीं कहना चाहता कि गई सरकारों में किसान कुछ ज्यादा ही खुशहाल था परन्तु इस सरकार में जो बद से बदतर हालत किसान की हुई जा रही है, ऐसा आज़ादी के 67 सालों में कभी नहीं देखने को मिला|

यह तो शुक्र है कि आधुनिक लोकतंत्र है, राजा पुष्यमित्र सुंग (lived 185–149 BCE), राजा शशांक शेखर (ruled 590-625 AD) और राजा दाहिर (lived 661-712 AD) का जमाना नहीं वरना अब तक तो किसानों की कुर्की हो चुकी होती| किसान दरिद्र से अति-दरिद्र बन चुका होता| इन लोगों की क्रूरता इतनी भयावह थी कि यह लोग स्थानीय जनता तो जनता, विदेशी व्यापारियों से भी तमीज नहीं बरतते थे और अक्सर उनको तंग करते थे| खाप जैसे सामाजिक तंत्र को वैधानिक तौर पर स्थापित करने वाले जाट महाराजा हर्षवर्धन बैंस पर तो राजा शशांक सिर्फ इसलिए आक्रमण करता था कि एक तो हर्षवर्धन बुद्ध धर्मी थे और दूसरा किसी भी जाति-सम्प्रदाय को राजनैतिक रूप से मजबूत बनाने की जरूरत उसकी सामाजिक इंजीनियरिंग यानी खापों को वैधानिक मान्यता दिए थे| जैसे कि मान्यवर श्री कांशीराम जी ने कहा है कि किसी कौम-जाति-सम्प्रदाय की राजनैतिक ताकत उसके सोशल इंजीनियरिंग सिस्टम की पकड़ और संगठन से निर्धारित होती है| और किसानी जातियों की यह पकड़ रही है इनका खाप सोशल इंजीनियरिंग सिस्टम, जिस पर कि मंडी-फंडी की सदियों-जमानों से टेढ़ी नजर रही है| मंडी-फंडी चाहता रहा है कि उनके आलावा किसी और का सामाजिक संगठन नहीं हो, कोई और भी अपने कौम-समाज में लोकतान्त्रिक संगठन बनाये और इसीलिए अब आज़ादी के बाद जब से पिछले लगभग दो दशकों से तो खासकर यह लोग लगातार खापों की छवि धूमिल करते चले आ रहे हैं; हालाँकि दोष इतना तो खापों का भी है कि खाप समय के अनुसार उस गति से अपने आपको हाईटेक नहीं कर पाये हैं जिससे कि इनको होना चाहिए था|

इससे आगे बढ़ते हैं| मैं इन दो कालों यानी आज का काल और पुष्यमित्र से दाहिर तक का काल इसलिए एक साथ रख रहा हूँ, क्योंकि इन दोनों में जो बात कॉमन है वो यह कि उस वक्त भी ऐसी ही ताकतों का देश पर राज था जैसा कि आज चल रहा है| आज की ताकतें तो देश और किसान को कहाँ ले जाएँगी यह तो अभी देखना बाकी है, परन्तु उस जमाने की ताकतों ने शुद्ध रूप से कहूँ तो लगभग 900 साल और विकृत रूप से कहूँ तो करीब 1300 साल की गुलामी देश के मत्थे मढ़ दी थी| क्योंकि ना तो राजा दाहिर के व्यापारी और दरबार अपनी जनता पर जुल्म करने की आदत से हिले-हिले अरब के व्यापारियों से दुर्व्यवहार करते और ना ही अरब व्यापारी जा कर इसकी शिकायत उनके बादशाह मुहम्मद बिन कासिम को करते और इससे रूष्ठ हो, ना ही बिन कासिम भारत पर आक्रमण करता और राजा दाहिर की क्रूरता में छुपी कमजोरियों की वजह से ना मुहम्मद बिन कासिम को राजा दाहिर पर विजय हासिल होती और ना ही देश गुलामी की राह पर चढ़ता (हालाँकि बिन कासिम द्वारा खड़े किये बेकाबू हालात बाद में जाटों और किसानों ने ही दबाये, परन्तु इसको हरियाणवी भाषा में "हागे हुए को संगवाना" कहते हैं, जो कि राजा दाहिर और उसके जुल्मी व्यापारियों का जनता पर क्रूरता रूप हगा हुआ जुल्म था, ठीक वैसे ही जैसे आज की सरकार किसान-कमेरे पर ढाती जा रही है)|

यह पुष्यमित्र से दाहिर तक का काल एक ऐसा दौर था जिसमें भारत में गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनती-उभरती-विचरती चली आ रही थी| कहीं धर्म के नाम पर जैसे आज इस्लाम को निशाना बनाया जा रहा है, बिलकुल इन्हीं ताकतों ने उस वक्त बुद्ध धर्म को निशाना बनाया हुआ था| किसानी कौम के राजाओं से इनके युद्ध चलते थे, कभी यह जीतते तो कभी वह| और इनकी इसी उठा-पठक और ना जीना ना जीने देना की पशोपेश में कब भारत में मुग़ल राज आया, खुद इनको इसका अहसास तब हुआ जब औरंगजेब ने इन पर भी जजिया कर लगाया| खैर कहने का अभिप्राय यह है कि जो स्थानीय भारतीय मंडी-फंडी और किसान के बीच की जद्दोजहद मुग़लों और अंग्रेजों के आने की वजह से और मुग़लों और अंग्रेजों का इनपे दबाव होने की वजह से 1300 साल तक मंद और अनसुलझी पड़ी रही वो अब फिर से इन्होनें शुरू कर दी है| या सीधे शब्दों में कहूँ तो अब किसान द्वारा अठारहवीं सदी की फ्रांसीसी क्रांति की भांति इन अनसुलझे रवैयों को सुलझाने का वक्त आ गया है| फ़्रांस में एक वक्त था जब धर्म और व्यापार किसान का हद से ज्यादा शोषण करने पर उतारू था और बिलकुल वही स्थिति आज भारत में चल रही है| फ़्रांसिसी किसानों ने तो इनकी अराजकता के विरुद्ध क्रांति कर, इनका किसानी और सामाजिक परिवेश में कितना दखल हो इसके नियम बनवा लिए थे, लेकिन भारत में यह होना अभी बाकी है|

हालाँकि मैं देश के गुलामक़ाल में मंडी-फंडी के मंद पड़ने की आड़ में मुग़ल और अंग्रेज राज को बढ़िया नहीं ठहरा रहा परन्तु इतना जरूर आगे बताऊंगा कि कैसे मुग़ल-अंग्रेज किसान की सुन तो लिया करते थे, किसान के कस्टमरी लॉज़ (Customary Laws) में तो दखल नहीं दिया करते थे, जबकि यह मंडी-फंडी स्वदेशी कहला के भी कैसे किसान को ना सिर्फ आर्थिक अपितु सांस्कृतिक रूप से भी कंगाल बनाने पे आमादा हुए जा रहे हैं, किसान के वर्तमान हालात इसकी पुष्टि करने को पर्याप्त हैं| मेरे लिए मुग़ल के हरम में और हिन्दू के मंदिर में कोई फर्क नहीं, लड़कियां दोनों के गृभगृह में जाती रही हैं, एक के यहां रक्कासा बन के तो एक के यहां देवदासी बनके| और क्योंकि खापलैंड की धरती पर खापें ना होती तो यहां भी यह लोग देवदासी फैला देते| खापें जब तक मजबूत थी मुझे इस बात का भय नहीं था परन्तु जब से खापों में ढलान आया है (जिसको लाने में इन्हीं लोगों ने अप्रत्याशित भूमिका निभाई है) मुझे खापलैंड की धरती पर आने वाले वक्त में देवदासियों के पाले जाने की सुगभुगाहट बेचैन किये हुए है| और खापलैंड के किसान की इसी आर्थिक और सांस्कृतिक समता पर यह पुष्यमित्र-शशांक और दाहिर चढ़े आ रहे प्रतीत जो मुझे हो रहे हैं, उसी के लिए मेरी लेखनी उस दबाव की रिप्लेसमेंट ढूंढ रही है जो अंग्रेज और मुग़ल इनपे रखा करते थे| अगर दो टूक में कहूँ तो यह लोग भी जब तक इनपे नकेल ना लगे, तब तक उस बेपरवाह हाथी की तरह चलते हैं, जो राह में आने वाली हर चीज को एकमत कुचलता जाता है|

मंडी और फंडी स्याना कितना ही बन ले, परन्तु इसकी सबसे बड़ी कमजोरी होती है कि इसको दूसरों पर जुल्म ढाते हुए दर्द नहीं होता, दूसरों की तड़पन से इसको मानसिक सुख मिलता है, परन्तु जब वही चाबुक इसपे खुद चलता है तो यह सबसे पहले त्राहिमाम् कराह उठता है; और फिर उन्हीं इन्हीं के द्वारा प्रताड़ित जातियों से ही सहारे ढूँढा करता है|

मंडी और फंडी की एक और भी कमजोरी होती है और वो है कि इसको खुद के लछणों से बिगड़े हुए हालात संभालने नहीं आया करते; अपने अतिआत्मविश्वास में टूलता हुआ बिगड़े हुए हालातों को समय रहते संभालने की बजाय, इसके दुष्परिणामों से डरा हुआ यह और क्रूर, अति क्रूर होता जाता है और अंत में यह क्रूरता ऐसी अनियंत्रित स्थिति पैदा कर देती है कि फिर किसान-कमेरी जनता को ही वो हालात संभालने पड़ते हैं| इसका यह चरित्र इसलिए भी है क्योंकि इसने वो मनुसमृति पढ़ी होती है जो इसके लिए कहती है कि तुम श्रेष्ठ हो, तुम पाप भी करो तो क्षमा-योग्य हैं| इसलिए गलती के लिए माफ़ी मांगने की बजाये यह उसपे गलती-पे-गलती करता जाता है और इतना बड़ा पहाड़ खड़ा कर लेता है, जितना कि महमूद ग़जनी को सोमनाथ मंदिर की लूट तक ले जाने के लिए काफी होता है अथवा पृथ्वीराज की मौत का अप्रत्यक्ष सामान बनने को काफी होता है| और फिर बाद में उसको संगवाना पड़ता है किसान-कमेरे मुख्यत: जाट को ही| अब देख लो भाई बाला जी जाट महाराज जैसे यौद्धेयों द्वारा सोमनाथ की लूट को लुटेरों से लूट के देश में ही बनाये रखना हो या यौद्धेय श्री रामलाल जी खोखर द्वारा गौरी को मारकर पृथ्वीराज की मौत का अधूरा पड़ा बदला लेना हो दोनों ही काम जाटों ने किये| यानी इनके हागे हुए हमेशा से संगवाये| ऐसे ही बुद्ध धर्म पर ढाये जा रहे इनके जुल्मों को इनकी एक लाख सेना को सिर्फ नौ हजार खाप यौद्धेयों द्वारा रोकना हो, परन्तु जब भी इनके इस बेपरवाह हुए अंध-हाथी रूप को नकेल डाली तो किसानों ने ही डाली| आधुनिक जमाने में इसका उदाहरण दूँ तो मुज़फरनगर के दंगे इसका सटीक उदाहरण हैं| परन्तु इनका हगना तो इतना बढ़ता जा रहा है कि अबकी बार तो मुझे इस वक्त की कोई धुन्धलकी भी नहीं दिखती कि जब किसान-कमेरे और जाट मिलके इसको संगवाएंगे|

खैर जब मुग़ल भारत में आये तो उनके आने से दो बातें हुई, एक तो इन स्थानीय मंडी-फंडी के किसान-कमेरे को अपनी मर्जी से लूट के खाने के रास्ते अवरुद्ध हुए और दूसरा किसान-कमेरे के साथ-साथ इनके ऊपर भी मुग़लों का चाबुक चलने लगा| हालाँकि मुग़लों के आने से किसान की हालत में कोई ख़ास बदलाव नहीं आये अपितु किसानों को तो अपना मुद्रा धन व् स्त्रीधन बचाने हेतु और ज्यादा जरूरी कदम भी उठाने पड़े और यातनाएं तो झेलनी ही पड़ी परन्तु सबसे बड़ा धक्का लगा मंडी-फंडी की मंशाओं को| लेकिन यह इतने शातिर निकले कि औरंगजेब के जमाने तक मुग़लों को यह बोल कर टैक्स देने से बचते रहे कि हम तो विदेशी हैं, हम हिन्दू नहीं हैं| लेकिन जैसे ही औरंगजेब ने जजिया कर में इनको भी शामिल किया तो इतना त्राहिमाम मचाया कि आज तक भी औरंगजेब को यह इतिहास का क्रूरतम बादशाह लिखते हैं|

औरंगजेब के जमाने के समानांतर अंग्रेज भारत में एंट्री ले चुके थे और धीरे-धीरे अंग्रेजों ने पूरा भारत (कुछ जाट रियासतों जैसे कि भरतपुर और पंजाब की रियासतें - इनके साथ मैत्री और बराबरी की संधियां हुई थी) छोड़ कर पूरे देश पर एकछत्र शासन शुरू किया और इन्होनें तो स्थानीय मंडी और फंडी की ऐसी नाक भींचीं कि इनको आज भी सपनों में अंग्रेजी राज नजर आता है|

तो इस तरह मंडी-फंडी को जब मुग़ल और अंग्रेज काबू में रखते थे तो इनको अपनी ही सुध लेने की फुर्सत नहीं होती थी, (क्योंकि अब किसानों के साथ-साथ मंडी-फंडी दोनों को मुग़ल-अंग्रेज लूट रहे थे) फिर किसानों को कैसे लूटा जाए इसकी तो बात ही कहाँ आनी थी; ठीक वैसे ही पुष्यमित्र और दाहिर के बीच वाले काल वाली लूट और अत्याचार, जिसकी वजह से कि देश गुलाम हुआ था, आज आज़ादी के 67 साल बाद यह लोग वापिस से अपने उसी ढर्रे पर आये हुए प्रतीत होते हैं| ऐसा लगता है कि या तो इन्होनें 1300 साल के गुलामी के काल से कुछ सीखा नहीं अन्यथा इनके जीन में ही लोकतांत्रिकता का गुण नहीं|

अंग्रेजों के काल में एक अच्छी बात यह हुई कि एक तरफ जहां मंडी-फंडी की ताकतें अंकुश में थी, किसानों पे इनका सीधा कंट्रोल नहीं था, वहीँ दीनबंधु सर छोटूराम जैसा ऐसा देदीप्यमान किसान-मसीहा हुआ जो कि एक ही पल में अंग्रेजों से किसानों की फसलों के दामों के भाव-तोल करवा लिया करता था| जिस फसल के अंग्रेज 6 रूपये प्रति किवंटल का भाव निर्धारित करते उसके लिए वो मसीहा छोटूराम 10 रूपये प्रति किवंटल के भाव मांगता और जब अंग्रेज अड़ते तो आप अड़ते और अंग्रेज हार के जब बोलते कि अच्छा छोटूराम 10 रूपये भाव ही ले लो तो आप कह देते कि अब भाव मैं नहीं मेरे किसान लेंगे और वो भी 11 का और अंग्रेज 11 का भाव दे देते| लेकिन सर छोटूराम को कौनसा यह मंडी-फंडी बक्शते थे, अभी गए वर्षों तक भी अंग्रेजों का पिठ्ठू कह के बुलाते रहे हैं| और शायद इस लेख को पढ़ने के बाद कुछ भक्त किस्म के लोग मुझे भी बुलाने लग जाएँ, लेकिन जब एक किसान-वंशज की कलम चलती है तो हर तरफ का बैलेंस बना के लिखती है मुझे इस बात का गर्व है|

अरे विदेशी होते हुए भी अंग्रेज इतनी दया तो मन में रखते थे कि वो किसान का मर्म जानते थे और इंसानियत के साथ विरोध के फलस्वरूप ही सही परन्तु न्याय दे देते थे| लेकिन आज जब खुद को राष्ट्रवादी और देशभक्त बता शुद्ध रूप से स्वदेशी धर्म की सरकार बताई जा रही है तो वो अपने ही उन किसानों जिनको कि "हिन्दू एकता और बराबरी" के नारे दिए जाते हैं, उनको दस दिन होने को हैं जंतर-मंतर पर बैठे हुए अपना दुखड़ा रोते हुए और वर्तमान सरकार में से कोई उनको ढंग से सुनने को तैयार नहीं|

तो क्या मैं गलत तुलना कर रहा हूँ इस पूर्व की दूसरी सदी से आठवीं सदी के उन क्रूर राजाओं और आज की सरकार की ...... निसंदेह नहीं| आखिर यही तो शुद्ध जीन है शुद्ध रूप से मंडी-फंडी की सत्ताप्राप्ति में किसान के मर्म को समझने का|

लेकिन आज अगर मंडी-फंडी बेलगाम हुआ जा रहा है तो यह आज की नहीं बल्कि उन 25 सालों की अजगर (अहीर-जाट-गुज्जर-राजपूत) किसानी वर्ग की सबसे बड़ी जातियों व अन्य छोटी किसानी जातियों की आपसी फूट का नतीजा है जिसकी नींव इन्हीं मंडी-फंडियों ने 1991 में डाली थी| और आज फिर से जाट-आरक्षण का जिन्न जिन्दा करके यह लोग उसी फूट को और भुना रहे हैं और कुरुक्षेत्र के एम.पी. से ले के गुडगाँव के एम.पी. तक इनकी चालों में सधे बैठे हैं और किसान बिरादरी की जातियों की खाईयों को कम करने की बजाय बढ़ाते ही जा रहे हैं| क्या यह किसान का दुर्भाग्य नहीं कि कहाँ तो इन दोनों एम्पियों (M.P.s) को ओ.बी.सी. के आरक्षण गेज को ओ.बी.सी. जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से 27% से 54% बढ़वाने के लिए आवाज उठानी चाहिए थी और कहाँ यह दोनों मंडी-फंडी की डुगडुगी बने बजे जा रहे हैं|

और यह नतीजा है किसानों की सबसे बड़ी खाप सोशल इंजीनियर संस्था के शुद्ध सामाजिक से राजनैतिक हो जाने का अथवा अधिकतर मीडिया द्वारा इनकी छवि को नकारात्मक दिखा के इनको औचित्यहीन दिखाने और बना देने का| इसी संस्था पर एक हथोड़े की तरह फंडी और मंडीवादी मीडिया द्वारा लगातार चोट करके इसको हासिये पर भेजने का| अभी मार्च के प्रथम पक्ष में मैंने राष्ट्रीय मीडिया के हिंदी के सबसे प्रखर माने जाने वाले एंकर को, "जख्म देने वाला मरहम लगाने आया है" के शीर्षक से एक छोटा जवाब लिखा था, जब वो किसानों की प्राकृतिक आपदा से बिछ चुकी फसल पे अपने ललित निबंध वाले घड़ियाली राग अलाप के आये थे| जब उन्होंने कहा कि कौन है जिम्मेदार किसानों की इस हालत का, क्यों कोई नहीं बोलता इनके हकों के लिए तो मैंने जनाब को जवाद दिया था कि जनाब जो बोला करते थे यानी खाप उनको तो आपने निरर्थक अंधी आलोचनाएँ कर-कर के उत्साहहीन बना दिया है और अब खुद ही पूछते हो कि क्यों कोई नहीं बोलता? 2011 तक जब तक बाबा टिकैत जिए तब तक तो यह लोग दबी जुबान में रहे परन्तु उनके जाने के बाद तो इन्होनें ऐसे चौतरफा हमले किये कि आज किसान की ऐसी हालत हो रखी है कि किसान जंतर-मंतर से ले देश की गली-कूचों में कहीं धरने तो कहीं आत्महत्याएं कर रहा है; पर क्या मजाल कि इन पुष्यमित्रों, शशांकों और दाहिरों के कानों पर जूँ तक रेंगती हो|

तो ऐसे में क्या चीज है जो किसान को फिर से खड़ा होने के लिए जरूरी है? क्या तालमेल, तार-तम्य बिठाने की लोड है कि किसान फिर से याचक और लाचार की जगह लोकतंत्र में एक निर्याणक व् सम्मानजनक भूमिका में वापिस आये?

वो जरूरत है किसानों को अंग्रेजों और मुग़लों के जाने के बाद से इन मंडी-फंडी पर ढीली हुई लगाम को फिर से कसने वाले एक ऐसे गैर-राजनैतिक किसान-कमेरे के उस मंच की जो राजनेता तो दे परन्तु संगठन को चलाने वाली सामाजिक मशीनरी अलग से रखे| एक ऐसी मशीनरी जो किसान के लिए हर प्रकार के शोध करे, नीतियां निर्धारित करे और अपने या विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं से अपनी बातों को एक किसान आयोग की भांति मनवाये| और वो सारे काम करे जो मैंने मेरे लेख, "अगर आज सर छोटूराम होते तो" में लिखे हैं| सर छोटूराम असमय स्वर्ग सिधारे, भगवान और समय देता तो उनका उत्तराधिकारी भी निर्धारित करके जाते, या अंग्रेजों और मुग़लों के जाने से खुले सांड बनने वाले मंडी-फंडी को बांधे रखने का कोई रास्ता सुझा के जाते| और निसंदेह वो भी कुछ ऐसा ही कहके जाते कि किसानों-कमेरो आपको राजनैतिक रूप से मजबूत रहने के लिए सामाजिक रूप से संगठित रहना होगा और उसके लिए अपने खापों की तरह की संस्थाओं को चिरस्थायी व् आधुनिक बनाना होगा| लेकिन आज देखता हूँ तो खापों के नेता ही सबसे ज्यादा राजनैतिक महत्वकांक्षी हो चुके हैं| जिस सामाजिक सरोकार के लिए यह संस्थाएं होती थी, उसके लिए विरला ही खाप-नायक काम करता दीखता है, जो कि ऊँट के मुंह में जीरे के समान है|

निसंदेह खापों में ऐसे शुद्ध सामाजिक चेतना के लोगों की कमी आई है जो शुद्ध रूप से सामाजिक सरोकारों के लिए असरदार पैरवी किया करते थे| उदाहरणत: मुझे 1953 का वो किस्सा याद आता है जब सर्वजातीय सर्वखाप के महामंत्री रहे स्वर्गीय दादा चौधरी काबुल सिंह बालियान जी उस वक्त के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से मिलकर बेझिझक कहते हैं कि आधुनिकरण और सिनेमा का ऐसा तारतम्य सुनिश्चित कीजिये कि इसके नकारात्मक प्रभावों से समाज को बचाया रखा जा सके|" तो इस पर पंडित नेहरू तपाक से उनको कहते हैं कि आप अवश्य ही जाट होंगे, जो समाज में इन प्रभावों तक की चिंता व् विवेचना रखते हैं| और दादा जी की यह दूरदर्शिता और इसपे चिंता कितनी वाजिब थी, आज के किसान के हालात देख कर इसको सहजता से समझा जा सकता है| आज किसान-कमेरे वर्ग को बिलकुल ऐसे ही सामाजिक चैतन्य के चिंतकों व् दूरदर्शियों की जरूरत है|

इसलिए किसान के वंश का शहरी हो या ग्रामीण, युवक-युवती को अब ऐसे ही सामाजिक तौर पर संगठित हो, मंडी-फंडी को नकेल डालने वाली संस्था फिर से खड़ी करनी होगी| गाँवों-किसानों के यहां से प्राइमरी प्रोडक्ट की जगह जितना हो सके उतना सेकेंडरी प्रोडक्ट मार्किट में जाए, इसके संयुक्त प्रयास करने होंगे, अपनी दान देने की ताकत (पैसा और खून दोनों का दान) और अपनी कंज्यूमर पावर दोनों को पहचानना होगा| सरकार की चालों, घड़ियाली मान-मनुहारों में ज्यादा वक्त ज्याया ना करते हुए किसान जातियों को अपने सामाजिक संगठन को फिर से खड़ा करना होगा| और इसमें जाटों को तो सबसे ज्यादा अहम भूमिका निभानी होगी| जाटों को अन्य ओबीसी से भिड़ाने की तमाम सरकारी -गैर सरकारी मंशाओं को भांपते और समझते हुए अपनी भाईचारा व् समक्ष जातियों के साथ खड़ा होना होगा, ताकि आगे आने वाली चुनावी परीक्षा में मंडी और फंडी ताकतों को उनकी हैसियत के हिसाब से सही जगह बताई जा सके| सरकार ने जाटों के आरक्षण की ठीक से पैरवी ना करके जो संदेश दिया है वो किसान समाज को पूरे पांच साल तक भटकाए रखने की मंशा की तरफ ही इशारा करता है|

वर्तमान सरकार जिस हिसाब से किसान और जाट के लिए रवैया अख्तियार किये हुए है वह ऐसा रूख है जो अगर सही से नहीं संभाला गया तो कहीं जाट यूथ को एक और 1984 जैसा काल ना भुगतना पड़ जाए, अथवा ऐसे हालत ना हो जाएँ कि दूसरी फ़्रांसिसी क्रांति खड़ी हो जाए अथवा फिर से किसी बुद्ध को किसान-कमेरे को मंडी-फंडी के अहंकारी रवैये से निकालने हेतु अवतारना पड़े| हाँ एक रास्ता मेरे दिमाग में जो आता है वो यह कि किसानों को मंडी-फंडी से असहयोग आंदोलन शुरू करना चाहिए| इस आंदोलन के नतीजे स्वरुप हासिल क्या हो उसका सबसे सटीक और आज की शताब्दी में वाजिब बैठता उदाहरण है फ़्रांसिसी क्रांति के परिणामस्वरूप हासिल बिंदु| हाँ यही ठीक होगा, किसान समाज को असहयोग आंदोलन के रास्ते चल अब भारत में २१वीं सदी के फ़्रांसिसी क्रांति करनी होगी, परन्तु कुछ मेरे "आज़ादी के बाद प्रथम "असहयोग आंदोलन" की घड़ी!" लेख में बताये जैसी राह ले के|

हरियाणा यौद्धेय उद्घोषम, मोर पताका: सुशोभम्!


जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर


लेखक: पी. के. मलिक

प्रकाशन: निडाना हाइट्स

प्रथम संस्करण: 31/03/2015

प्रकाशक: नि. हा. शो. प.


साझा-कीजिये
 
इ-चौपाल के अंतर्गत मंथित विषय सूची
निडाना हाइट्स के इ-चौपाल परिभाग के अंतर्गत आज तक के प्रकाशित विषय/मुद्दे| प्रकाशन वर्णमाला क्रम में सूचीबद्ध किये गए हैं:

इ-चौपाल:


हरियाणवी में लेख:
  1. त्यजणा-संजोणा
  2. बलात्कार अर ख्यन्डदा समाज
  3. हरियाणवी चुटकुले

Articles in English:
    General Discussions:

    1. Farmer's Balancesheet
    2. Original Haryana
    3. Property Distribution
    4. Woman as Commodity
    5. Farmer & Civil Honor
    6. Gender Ratio
    7. Muzaffarnagar Riots
    Response:

    1. Shakti Vahini vs. Khap
    2. Listen Akhtar Saheb

हिंदी में लेख:
    विषय-साधारण:

    1. वंचित किसान
    2. बेबस दुल्हन
    3. हरियाणा दिशा और दशा
    4. आर्य समाज के बाद
    5. विकृत आधुनिकता
    6. बदनाम होता हरियाणा
    7. पशोपेश किसान
    8. 15 अगस्त पर
    9. जेंडर-इक्वलिटी
    10. बोलना ले सीख से आगे
    11. असहयोग आंदोलन की घड़ी
    12. मंडी-फंडी और किसान
    13. जाट छवि बनाम मंडी-फंडी
    खाप स्मृति:

    1. खाप इतिहास
    2. हरयाणे के योद्धेय
    3. सर्वजातीय तंत्र खाप
    4. खाप सोशल इन्जिनीरिंग
    5. धारा 302 किसके खिलाफ?
    6. खापों की न्यायिक विरासत
    7. खाप बनाम मीडिया
    हरियाणा योद्धेय:

    1. हरयाणे के योद्धेय
    2. दादावीर गोकुला जी महाराज
    3. दादावीर भूरा जी - निंघाईया जी महाराज
    4. दादावीर शाहमल जी महाराज
    5. दादीराणी भागीरथी देवी
    6. दादीराणी शमाकौर जी
    7. दादीराणी रामप्यारी देवी
    8. दादीराणी बृजबाला भंवरकौर जी
    9. दादावीर जोगराज जी महाराज
    10. दादावीर जाटवान जी महाराज
    11. आनेवाले
    मुखातिब:

    1. तालिबानी कौन?
    2. सुनिये चिदंबरम साहब
    3. प्रथम विश्वयुद्ध व् जाट

NH Case Studies:

  1. Farmer's Balancesheet
  2. Right to price of crope
  3. Property Distribution
  4. Gotra System
  5. Ethics Bridging
  6. Types of Social Panchayats
  7. खाप-खेत-कीट किसान पाठशाला
  8. Shakti Vahini vs. Khaps
  9. Marriage Anthropology
  10. Farmer & Civil Honor
नि. हा. - बैनर एवं संदेश
“दहेज़ ना लें”
यह लिंग असमानता क्यों?
मानव सब्जी और पशु से लेकर रोज-मर्रा की वस्तु भी एक हाथ ले एक हाथ दे के नियम से लेता-देता है फिर शादियों में यह एक तरफ़ा क्यों और वो भी दोहरा, बेटी वाला बेटी भी दे और दहेज़ भी? आइये इस पुरुष प्रधानता और नारी भेदभाव को तिलांजली दें| - NH
 
“लाडो को लीड दें”
कन्या-भ्रूण हत्या ख़त्म हो!
कन्या के जन्म को नहीं स्वीकारने वाले को अपने पुत्र के लिए दुल्हन की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए| आक्रान्ता जा चुके हैं, आइये! अपनी औरतों के लिए अपने वैदिक काल का स्वर्णिम युग वापिस लायें| - NH
 
“परिवर्तन चला-चले”
चर्चा का चलन चलता रहे!
समय के साथ चलने और परिवर्तन के अनुरूप ढलने से ही सभ्यताएं कायम रहती हैं| - NH
© निडाना हाइट्स २०१२-१९