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Hary in Bolly
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Reviews
Harywood in Bollywood - Latest Release Review
Review of presence, presentation or representation of Haryanvi, Haryanvinism and Haryana in terms of language use, actor, character, context and/or scenario in Bollywood Movies/Daily Soap-Operas/T. V. Debates.

Description

Bahubali
Except visual effects movie lands in shrinked ground of any other dadi-nani type story

I kept on struggling to frame the movie to create a caricating fit to my imagination of 'voila' taste but deviating and uncertain jolts of movie's plot, music, hilly and icy scenes, south Indian music inserted in Ganges shores left me with my both hands handling my head in buzz.

Except visual and theatrical effects, there is nothing in movie 'Bahubali' to exclaim for neither the story nor the plot. Even the movies of 70's around kings and kingdoms prevailed better scripts. Useless mega size scenes create dumbness and boredom in digesting the visual effects.

Alongside it movie has very funny though blunderous mistakes too, like while Tammana Bhatia meets Prabhat on the tree branch with arrow towards pond in zest of hunting Prabhat himself, an ultramodern 21st century's watch is clearly visible on her wrist. Seems director, actress herself and full team forgot to ask actress to take off the watch from wrist as it was a seemingly stone age era movie.

Whatever, next immaturity met in scene of Bull tied in ropes almost from 10 sides to be conquerred/nabbed by the king. Oh come on director sahab, instead you would have tried to nab the Bull with a rope in its nostril just like a farmer's child play. I never saw or heard such technique of gripping a bull, taking it a foolishness even a lehman won't try it. So not such a charismatic idea or deal even to be joyeus as something superficial power symbol.

As said above, third contradiction is the festive music. As per initial scenes, movie is plotted in belts of Ganges where as the music sings south Indian lyrics.

Fourth, contradiction shouts for the role of "Kattapa". From name it seems a south Indian Hindu character where as by dress-up he inlays a Muslim character.

Fifth, no date or time period is aligned with the story, which takes the viewer away from enjoying it in realistic terms rather left anxious till end.

Sixth awkward point peeps up when in main war the second prince rides a chariot with a horizontal churning mill to clear not only the way but chopping-off the necks coming in its way. Well no science can make such a chariot possible without break in mid, so totally bullshit mess-up of creativity, perhaps in zeal of showing something better than Hollywood, from where most of the war scenes and their plots were copied.

In one line, an effort simply to exaggerate superstition and inertia! A usual royal family drama fight juncture for acquiring 'gaddi'.

P. K. Malik for NH Reviews - 12/07/15


Description

Miss Tanakpur Hajir Ho
"मिस टनकपुर हाजिर हो" बनाने वालो हरयाणे की पंचायतें कोई टोणे-टोटके वाले बाबे-साधु-तांत्रिक नहीं हैं जो इंसानों के जानवरों से फेरे करवाते हों!

(फिल्म रिलीज़ होने से पहले ही फिल्म का रिव्यु)

मैं तो अक्सर कहा करता हूँ कि पब्लिक स्टेजों पे होने वाली नौटंकियों ने जब से सिल्वर स्क्रीन का कवच ओढ़ा है तब से इनके खुले बारणे (पौ-बारह) और चौड़े डंके हो गए हैं| पहले जब डायरेक्ट पब्लिक के बीच स्टेजों पे नौटंकी-नाटक-सांग-रागणी हुआ करते थे तो थोड़ी सी भी भांडगिरी दिखाने पे पब्लिक वहीँ के वहीँ हिसाब-किताब कर दिया करती थी| खैर आजकल शुद्ध भाषा के ना तो सांग-सांगी रहे और ना ही दर्शक। वर्ना हरयाणा की धरती (पश्चिमी-पूर्वी-मध्य तीनों हरयाणे यानी खापलैंड) पे तो बीते दशकों तक इनके अधिकतर आयोजन गाँवों के बाहर गोरों-समाणों-जंगलों में हुआ करते थे| और रात के तो सारे प्रोग्राम ही गाँव की बसासत से बाहर हुआ करते थे| गाँव-चौपाल के अंदर सिर्फ वो प्रोग्राम अलाउड हुआ करते थे जिनको बहु-बेटी भी देख सकती थी जैसे कि साफ़-सुथरे बिना गन्दी बोली के सांग अथवा दादा चन्द्र बादी जैसों के खेल-तमाशे या गए दशक तक आर्य समाजियों के प्रवचन|

परन्तु मिस टनकपुर जैसी फ़िल्में देख-सुन के तो लगता है कि इनको सिल्वर स्क्रीन क्या मिल गई, मतलब बाजे-बाजे ने तो भांडगिरी फुलटूस फुल स्पीड में गियर पकड़ा रखी है| बताओ हरयाणे की पंचायतों को भी 70-80 के दशक के ठाकुर समझ लिया। कि यह लोग फिल्मों में किसी ठाकुर की नकारात्मक छवि दिखाएंगे, उनको विलेन-जुल्मी-डाकू-निर्दयी-अत्याचारी और क्रूर दिखाओगे और सारी ठाकुर बिरादरी चुप बैठी रहेगी।

खैर कोई नी अबकी बार आपका पाला हरयाणे की पंचायतों से पड़ा है; ऐसे ही बिना विरोध के आप अपना गंद परोसोगे और सब चुपचाप सह जायेंगे; ना बावलों ना सोचना भी मत, और बहम तो पालना ही नहीं| अभी पीछे 2011 में खाप फिल्म बनाई थी तब प्रसाद चख के मन नहीं भरा था क्या कि फिर से न्यूनतम दर्जे वाली भांडगिरी का कीड़ा उठ खड़ा हुआ? चिंता ना करो 2011 वाली का जो हाल हुआ इसका भी कुछ-कुछ ऐसा ही होने वाला है| और अगर नीचे दिए source number 1 की खबर को सच मानूं तो अबकी बार तो ठाकुर बिरादरी भी सम्भल चुकी है और साथ में विरोध को कूद पड़ी है| थम चढ़ाओ इसको खापलैंड के सिनेमाओं की स्क्रीन पे, थारे चीचड़ से ना चूंडे जावें तो|


यह तो थी ठेठ हरयाणवी में थारी फिल्म और दिमाग की सोच और क्वालिटी का पोस्टमॉर्टेम| अब सीरियस वाला फीडबैक सुनो आपकी फिल्म का:

पूरी फिल्म देखने की जरूरत नहीं, ट्रेलर देख के ही लिख रहा हूँ| क्योंकि हरयाणवी हूँ तो हरयाणा के बारे क्या सही होगा या क्या गलत, किसी खत के मजबून को देख के बताने वाली अदा में ही बता सकता हूँ| मुझे जिन-जिन बातों से यह फिल्म ऊपर लिखित भर्तसना वाले क्रिटिक (critic) के योग्य लगी, वो हैं एक तो इसका कांसेप्ट (concept), दूसरा इसकी नीयत और तीसरा इसका संदेश|

ज्यादा तो कहूँगा नहीं लेकिन क्योंकि इसमें हरयाणवी भाषा और वेशभूषा प्रयोग की हुई है तो हरयाणा के संदर्भ में ही आप लोगों को दो टूक में रिव्यु देता हूँ| ऐसा है डायरेक्टर, राइटर ऑफ़ थिस फिल्म (director, writer of this film), हरयाणा पे तीन तरह की पंचायतें पाई जाती हैं| एक सरकारी तंत्र वाली, दूसरी खापें और तीसरी सेल्फ-स्टाइल वाली किसी भी ऐरे-गैरे द्वारा सही-गलत मंशा से on the spot बटली (बुलाई) कर दी गई| ध्यान दीजियेगा खाप-पंचायत कभी भी on the spot नहीं बुलाई जाती और ना ऐसे वो आती| उनको स्पेशल बुलावा यानी official invitation दे के बुलाने का विधान है, जिसका कि बाकायदा रिकॉर्ड भी रखा मिलता है हर खाप-पंचायत के पास|

तो पहले तो सुध इंसानी भाषा में आपको बता दूँ कि इनमें से कोई सी भी पंचायत ऐसी गिरी हुई नहीं है कि जो बाबा-साधु-तांत्रिकों वाले असामाजिक काम करती हो| यानी जैसे बाबे-साधु-तांत्रिक पूर्वी-दक्षिणी और मध्य भारत में कहीं लड़के की शादी कुतिया-गधी आदि से तो कहीं लड़की की कुत्ते-गधे आदि (थोड़ा गूगल सर्च कर लेना फोटो भी मिल जाएँगी बाकायदा) से करवाती हो और लड़का-लड़की भी चुपचाप कर लेते हों| वैसे सच-सच बताना आपकी टीम में कौन-कौन इस एरिया से आता है जहां इंसान की शादियां जानवरों से करवाई जाती हैं? और टीम में कोई भी हरयाणवी नहीं था क्या जो इतना तो ज्ञान देता आपको कि भाई हमारे इधर इंसान इंसानों से ही शादी करते हैं, जानवरों से नहीं| और सामाजिक परिवेश में तो बिलकुल भी नहीं, हाँ कोई माता-मसानी-बाबा-बाबन की दुनियां की भेंट चढ़ा हो तो अलग बात है|

दूसरी बात इन तीनों तरह की पंचायतों में एक हैं खाप पंचायत| अब आप इतने मूढ़-मति तो हो नहीं सकते कि खाप पंचायत क्या होती है इसका आपको पता ही ना हो? हालाँकि मैं जानता हूँ आपने खाप-पंचायत शब्द का जिक्र नहीं किया होगा फिल्म में, परन्तु हरयाणा का परिवेश दे दिया तो देखने वाले ने पहले झटके ही इसको खाप पंचायत से जोड़ लेना है (मेहरबानी हो मीडिया की जिसने हरयाणा की पृष्ठभूमि बना रखी है)।

वैसे ऐसा करने के लिए बाबे-साधु-तांत्रिक-फंडी-पाखंडियों ने आपको सुपारी-रिश्वत खिला रखी है क्या कि भाई यह हरयाणवी लोग कभी हमारे बहकावे में नहीं आते और ना ही हमें अपने मनचाहे तरीके से समाज में पाखंड फैलाने देते हैं, इसलिए यह लो पहले तो एक भैंस का एक इंसान से बलात्कार करवा दो और फिर एक पंचायत के जरिये फरमान सुनवा के उसके उसी भैंस से फेरे पढ़वा दो; और बना दो इनको भी हमारी ही गली-सड़ी सोच का? नहीं मतलब सच्ची बताना, कुछ ऐसा ही है क्या?

चलो इंसानियत के नाते पहले तो आपको 19 पेज की खापों पे इंग्लिश में बनाई एक केस स्टडी (see source link 3) पढ़वा देता हूँ। अब एक अनलॉजिकल स्टडी (analogical study) आप भी करके देखो और पता लगाओ कि सामाजिक अपराधों के मामले सुलझाने में सबसे तेज, न्यूनतम लागत का और इन वन सिटींग (in one sitting) में न्याय करने का रिकॉर्ड हमारे देश की सवैंधानिक अदालतों का बेहतर है या हरयाणे की पंचायतों का? प्रतिशत के हिसाब से गलत-सही निर्णय देने का अनुपात कानूनी अदालतों का बढ़िया है या हरयाणे की खाप पंचायतों का? कंस्यूमर सैटिस्फैक्शन (consumer satisfaction) वाला बढ़िया न्याय करने का बढ़िया रिकॉर्ड देश की कानूनी अदालतों का बढ़िया है या इन पंचायतों का? कसम से अगर इन पंचायतों का रिकॉर्ड देश की अदालतों से खराब मिले तो मुझे देश की कानूनी न्याय व्यवस्था की ऐसी तुलना करने के जुर्म में देश के कानून से ही फांसी तुड़वा देना, चूं भी नहीं करूँगा|

यार कुल मिला के यही कहना है कि अगर आप समाज को जोड़े रखने और उसकी सकारात्मक सोच को जिन्दा और पोषित रखना चाहते हो तो कृपया करके ऐसी बचकानी फ़िल्में मत बनाया करो कि जिससे मेरे जैसे अनाड़ी को भी, जिसको कि फ़िल्में बनाने की एबीसी भी नहीं आती, आप लोगों को अव्वल दर्जे का भांड कहना पड़े| और आपकी ऐसी कठोर निंदा करनी पड़े|

Source of critic made above:

1) Khaps to oppose Miss Tanakpur
2) Movie Trailor
3) Sarvkhap Legend
4) Miss Tanakpur FB

P. K. Malik for NH Reviews - 16/06/15


Heropanthi (2014)
फिल्म दक्षिण भारतीय फिल्म "पुरुगु" का remake है| डायरेक्टर सब्बीर खान ने अच्छा प्रयास किया है "पुरुगु" की पटकथा को जाट, जाटलैंड और हरियाणा के इर्दगिर्द पिरोने का, समझने का और फिल्म में भुनाने का; बस इन दो-चार बिन्दुओं को छोड़ कर:
1) जाटों के यहां शादी से पहले यानी कुंवारी लड़की से घर के मर्द पैर नहीं छुवाते| अब फिल्म साउथ इंडियन मूवी का रीमेक है सो डायरेक्टर यह पॉइंट वहाँ से उठा के लाये हैं या कहाँ से यह तो डायरेक्टर ही जाने|

2) कई जगह बेवजह पंचायती आदमियों का झुरमुट दिखाया गया है, जबकि ऐसे-ऐसे मामलों में घटना होने से पहले और वो भी लड़की या लड़का पक्ष की तरफ से गुहार लगाने से पहले तक कोई पंचायत ऐसे मामलों में जाटलैंड पर नहीं होती|

3) मशाला परोसने के हिसाब से तो फिल्म ठीक है और लगता भी यही है लेकिन जो "Love forbidden on Jatland" का concept उतारा गया है ऐसा धरातल पर कुछ भी नहीं है|

4) आज के दिन हरियाणा के हर गाँव-शहर-गली-मोहल्ले में कम से कम पांच-छह लव मैरिज के किस्से और जोड़े आराम से देखने को मिलेंगे और यह सिलसिला यहां आज से नहीं सदियों पहले से है| डायरेक्टर थोड़ी सी और शोध करके फिल्म बनाते तो पाते कि हरियाणा के आमजन को तो छोड़ो, यहां की तो खापों के प्रधानों-योद्धेय-योद्धेयायों तक की लव मेरिज होती आई हैं|


तो कुल मिला के कहना यही है कि कोई जाटलैंड की संस्कृति से अनजान या इससे द्वेष रखने वाला तो बेशक आपकी भूरी-भूरी प्रशंसा करे, लेकिन जो असली जटलैण्डी होगा वो तो सिर्फ इस फिल्म को देख के फिल्म का लुत्फ़ तो उठाएगा ही उठाएगा, साथ ही आपकी poor knowledge about jatland पे भी खूब ठहाके लगाएगा या आपको poor chap कहते हुए आपके लिए sorry feel करेगा| कसम से मेरा तो मजा दोगुना हो गया यह फिल्म देख के, एक तो वाकई में फिल्म की कॉमेडी हंसाने लायक थी, ऊपर से आपकी ऊपर कही poor knowledge ने मेरे लिए फिल्म दोगुनी मजेदार बना दी|

इसलिए इस फिल्म में अगर आप कोई serious message देना चाहते थे तो वह कम से कम उनको तो नहीं गया होगा, जिनको कि सोच के आपने यह फिल्म बनाई होगी| हो सकता है अगली बार कोई बढ़िया मैसेज दे जाएँ, वर्ना इस फिल्म को तो जाटलैंड के जाट तो कम से कम दारु और हुक्के की गुड़गुड़ाहटों में ही घोल के पी पीयेंगे बस|

P. K. Malik for NH Reviews - 26/05/14


Pet, pyaar aur paap (1984)
Perhaps one of the very first remarkable chapter cum learning of Eve Teasing from Bollywood:

Now I come to realize from where the chapters of eve teasing would have started uleashing toward untouches of this field...
though awesome performance by Amzad Khan and Samita Patil both and interesting is to see Amzad in role of a "chhichhora ashiq" that beside being the best and immortal villain of bollywood how good he was in these kind of characters too, just amazing....if after "gabbar" of sholay another role to applaud for Amzad Khan, nothing can be replaceable to this role.....a paisa vasool video, nothing can't be rustic than it!

लेकिन साथ-साथ सोच रहा हूँ कि कितने आशिकों को छेड़-खानी यानि ईव टीजिंग के गुर सिखाये होंगे इस फ़िल्म ने...??? ऐसे बहुत कम होते हैं ना जो फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन के नजरिये से देखते हैं अन्यथा अधिकतर तो इनसे सीख के ही गुंडागर्दी से ले आशिकी तक करते हैं|

Click here for Amzad-Samita Eve Teasing scenes collection

P. K. Malik for NH Reviews - 26/11/13


War chhod na yaar (2013)
Idea says: Boycott their products in your market and they shall surrender on your borders. How logical, feasible and foreseen is this idea?
In one line: Elasticity beyond a limit loses its grip thus breaks down and it’s scientifically proven fact.

1st view: This idea can only work if in parallel to allowing them the access in our market, we would have minimum 50% of domestic products and production houses owned by own nationals; so that in case of boycotting them, domestic market won’t require to gaze their faces for its survival, where as with kind of conditions at present, India can’t survive even a 1 to 2 weeks of such boycott.

2nd view: How much time it will take for powers like USA and China in bankrupting the Indian government by pressurizing World Bank and of course approaching the Swiss Bank, the home to Indian black money. At that end they will squeeze the neck of Swiss Govt. thus automatically the grip would fall upon the black money holders of India and how loyal our honorable black owners are to us (the public of nation), it’s now not a veil to any. Thus they will compel our so called nationalist leaders to impose their decisions on us.

3rd view: This idea was nothing by virtue despite a filthy try of media jerks to take the public in their impression of being its teacher.

4th view: What happened to Oil based economies of middle-east? Fall down of many big satires there is a testimony to fact that these stupid ideas of boycotting them in situations like war time won’t stop or push them back even an inch. At the end only survival will left how much prepared, stronger and efficient front you have on your defense forces front. Moreover how realistic this idea is China’s currently going on encroachment at Leh-Laddakh front is evident to it.

5th view: From the comedy point of view and kind of relations the soldiers of both sides enjoy movie is worth watching but the core idea of movie is a bull-shit.

यू तो नेवा कर दिया अक म्हारे हरियाणे म्ह कोए कुबुद्धि बीर की जै किसी से लड़ाई हो जा, तो उससे बणने-जाणे का तो कुछ नहीं, बस सूखी घुर्खी घालें जागी, "अक इबकै मार कें दिखा"; अर वो स्याहमी आळा फेर चपाक दे सी एक चेप जा उसकै| अर वा फेर याहे लाईन पकड़ें बैठी रह, चाहे स्याहमी आळा मार-मार उसका थोबड़ा सुजा दे| तो भाई इस मूवी को बनाणे आलयों कॉमेडी ताहीं तो थारी बात खटा जागी, पर यू आईडिया म्हारे नेताओं को ना थमा आइयो नहीं तो इंडिया गेल इस कुबुद्धि लुगाई आळी बणी पावैगी|

P. K. Malik for NH Reviews - 18/11/13
Description

Guddu-Rangeela
खाप पंचायतों व हरियाणवी संस्कृति की नकारात्मक छवि पेश करती फिल्म है‘गुड्डू रंगीला'!

-खाप चौधरी जल्द ही पंचायत कर करेंगे फिल्म का विरोध
-अदालत में दर्ज करवाया जायेगा फिल्म के निर्माता, निर्देशक व कलाकारों के खिलाफ मामला


रोहतक, 4 जुलाई (रवि मलिक)। कहा जाता है कि सिनेमा समाज के हर रंग को दिखाता है लेकिन आज का सिनेमा समाज की नकारात्मक छवि पेश करने लगा है। सिनेमा अपने फायदे के लिए समाज की नकारात्मक छवि पेश कर वाहवाही लूटने का काम कर रहा है और ऐसे में सिनेमा का सबसे आसान निशाना ‘खाप पंचायतों’ को बना रही हैं। पिछले कई सौ सालों से अपनी न्यायप्रियता तथा आपसी भाईचारे की मिसाल बनी खाप पंचायतों की छवि को वर्तमान में सिनेमा अपनी दूषित मनोवृत्ति के कारण नकारात्मकता दर्शा रहा है। इसकी ताजा मिसाल कल रिलीज हुई फिल्म ‘गुड्डू रंगीला’ है।

फिल्म में दिखाया गया है कि खाप पंचायतें शादी-ब्याह के मामलों में रोजाना कत्ल करती हैं। जबकि हकीकत यह है कि आज तक किसी भी खाप पंचायत ने किसी को मारने का फैसला नहीं सुनाया है। फिल्म के किरदार ‘बिल्लू पहलवान’ को रोजाना हत्याएं तथा अन्य अपराध करते हुए दिखाया गया है। वहीं ‘हुड्डा खाप’ की एक बेटी को इसलिए मारने की कोशिश की गई उसने प्रेम विवाह किया था। जिस पर ऐतराज जताते हुए हुड्डा खाप के महासचिव धर्मपाल हुड्डा ने कहा कि आज तक हुड्डा खाप ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया है। उन्होंने बताया कि फिल्म के निर्माता निर्देशक सुभाष कपूर, कलाकार अरशद वारसी, अमित साध, रोनित रॉय, अदिति राव हैदरी आदि पर खाप पंचायतें जल्द ही कानूनी कार्यवाही करने जा रही हैं।

फिल्म में खलनायक की भूमिका निभा रहे रोनित राय खाप के नाम पर लोगों का कत्ल करते दिखाये गये हैं। जोकि सरासर गलत है तथा खाप पंचायतें इस तरह के कार्य में शामिल नहीं होती। इस फिल्म से इलाके के खाप चौधरियों की भवें तन गई हैं तथा जल्द ही इस मामले में पंचायत कर फिल्म का विरोध करने की बातें कही जा रही हैं। वहीं फिल्म में गंदे व अश£ील संवाद परोसकर रोहतक इलाके की इज्जत पर जमकर प्रहार किया गया है। घिसे-पिटे व फूहड कलाकार अरशद वारसी शायद अपनी नकारात्मकता के चलते ऐसी फिल्मों में काम कर खापों का मजाक बना रहे हैं।

सिनेमा समाज का दर्पण होता है तथा इसमें सकारात्मक चीजें दिखायी जानी चाहियें ताकि समाज में अनुकरणीय मिसाल पेश हो सके। लेकिन फिल्मकार अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी भी परम्परा का उपहास उड़ाने से नहीं चूकते। इस फिल्म से पहले भी ‘मिस टनकपुर हाजिर हो’ तथा ‘खाप’ फिल्म के जरिए खाप व्यवस्था पर फिल्मकार प्रहार कर चुके हैं। ऐसे में अगर इस बार इन्हें सबक नहीं सिखाया गया तो ये फिर से हरियाणवी परम्परा व खाप परम्परा पर खुलेआम प्रहार करते रहेंगे तथा युवाओं को दिग्भ्रमित करते रहेंगे।

Ravi Malik - 04/07/15


Description

Tanu Weds Manu Returns
एक Alarming Singal है स्थानीय हरयाणवी समाज के लिए!

विगत रात तनु वेड्स मनु रिटर्नस देखी| मिक्स्ड सी फीलिंग आती रही| कहीं लगा कि डायरेक्टर स्थानीय हरयाणवी समाज की प्रशंसा कर रहा है तो कहीं धो-धो के पुचकार रहा है| Overall its just another bullshit crap following 'NH10' by people obsessed with jatophobia or haryanophobia or khapophobia.

सबसे बकवास जो चीज लगी, वो था, "तुम क्या राजस्थान के रजवाड़े हो!" वाला डायलाग| पहली तो बात फिल्म के डायरेक्टर को यह बताऊँ कि काहे के रजवाड़े? प्राचीन विशाल हरयाणा के दोनों रजवाड़े भरतपुर और धौलपुर को निकाल के वापिस हरयाणा को दे दो, फिर दिखाओ जो एक भी रजवाड़ा ऐसा हो जिसने कभी जाटों की तरह मुग़लों और अंग्रेजों के विजयरथ रोक के दिखाएँ हों और खुद दुश्मनों के मुख से अजेय लोहागढ़ कहलायें हों या जाटों की तरह अंग्रेजों से 'Treaty of Equality and Friendship' पे दस्तखत करवाएं हो?

दूसरी बात हाँ वाकई में जाटों की इनसे कोई तुलना नहीं हो सकती, क्योंकि जाट वो (रजवाड़े-खापवाड़े-जटवाड़े) हैं जिन्होनें इतने ना सिर्फ अंतर्जातीय वरन अंतर्धार्मिक प्रेम-विवाह तक किये हैं कि जाटों के यहां कहावत चली, "जाट के आई जाटनी कुहाई|" जाटों ने उनकी बेटियां ब्याही जिनको ये बेटियों के डोले चढ़ा दिया करते थे| तो जाट इनके जैसे हों भी तो कैसे?

तीसरी बात इन रजवाड़ों को राजपुरोहित बन दिशा-निर्देश देने वालों और एक हिसाब से इनको बनाने वालों के लिए जाट "जाट जी" होते आये हैं, तो जिनको बनाने वालों के लिए ही जाट "जाट जी" होते आये हों तो जाट उनके शागिर्दों के जैसे हों भी तो कैसे? वैसे भी जाटों को तो इन रजवाड़ों को बनाने वाले ही खुद के (इनके नहीं, खुदके) एंटी बोलते हैं तो इनसे जाटों की तुलना को तो इससे ही विराम लग जाता है|

चौथी बात, डायरेक्टर साहब यह आप वाले, जाटलैंड की गली-गली में खुरपी-सीपियाँ-पल्टे आदि लोहे का सामान बेचते हैं तो इस हिसाब से भी आपकी तुलना नहीं बैठी| यह आप वाले जाटों के घर में सीरी (आपकी भाषा में नौकर) तक रहते आये हैं, तो बताओ अब कैसे तुलना करूँ?

हाँ जाटभाषा में तो तुलना हो सकती है, क्योंकि जाट सीरी को भी साझी (यानी पार्टनर) मानते हैं, परन्तु आप वाली में तो नहीं होगी ऐसी तुलना| दूसरी बात आपको ओपन होने का संदेश ही दिलवाना था तो 'जाट के आई जाटनी कुहाई' वाली कहावत प्रयोग करके यह सन्देश दिलवाते तो मैं आपकी भूरी-भूरी प्रशंसा करता| खामखा मुझसे identity safeguarding के चक्कर में वो तुलनाएं लिखवा दी जो सामान्य स्थिति में मैं ignore मार देता हूँ|

खैर यह घमंड की बात नहीं है, किसी को नीचा भी दिखाने की बात नहीं है, परन्तु डायरेक्टर को तर्कसंगत तस्वीर दिखाने की बात है; वरना खामियां-खूबियां तो हर मानव जाति-नश्ल में लगी आई हैं| मैं लोकतान्त्रिक कौम का खूम हूँ, और किसी से द्वेष नहीं रखता, परन्तु इस फिल्म जैसे नादाँ डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर को आईना दिखाना बेहद जरूरी हो जाता है| क्योंकि इंसान फिर हमें वैसे ही पक्का कर लेता है, जैसा ऐसे लोग दिखाने की जुर्रत चढ़ा बैठते हैं| You know its all about damage control over theirs this 'रायता फैलाई'|

और डायरेक्टर साहब, क्या मतलब अब हम हरयाणवी इन बिगड़ीजादियों को अक्ल लगवाने के लिए गंवार बना के दिखाने लायक ही रह गए हैं क्या, कि देखो या तो सुधर जाओ वरना ऐसी-ऐसी गंवार भी तुम्हें लेक्चर पिला देंगी| अरे श्रीमान डायरेक्टर साहेब, आपके तनु वाले किरदार वाली out of order बिगड़ीजादियाँ तो हमारे यहां just for timepass के लिए लाइन मारने तक के लिए भी सीधी 'of no use' and 'just avoid them' की सर्किल में राउंडलॉक करके साइड कर दी जाती हैं| और आप सोचते हो कि हम उनको लेक्चर देंगे? अरे बाबा हमें इनकी अक्ल ठीक भी करनी पड़ जाए तो at least आप वाले तरीके से तो बेहतर तरीके जानते हैं|

अब बात आती है कि यह फिल्म स्थानीय हरयाणवियों के लिए अलार्म क्यों है, वो इसलिए कि तुम लोग या तो इस जाट बनाम नॉन-जाट के खड़दू-खाड़े को छोड़ दो, वर्ना एक दिन इससे भी गंवार दिखाए जाओगे जितना कि literally इस डायरेक्टर ने दिखाना चाहा है| लगता है डायरेक्टर ने सोचा होगा कि हरयाणा में गैर-हरयाणवियों की धाक कैसे जमाऊँ और छोड़ दिया सगुफा हमें गंवार और जाहिल बताने का| चलो कोई नी निकाल लो भड़ास, वर्ना वैसे तो हरयाणा में बसने वाला हर गैर-हरयाणवी जानता है कि इस आपके अनुसार गंवारों के हरयाणा में ही देश के कोने-कोने से आये हर किसी को रोजी-रोटी से ले छत तक मिलती है| इन्हीं हरयाणवियों के यहां आ के आप जैसों के चेहरे की रंगत निखरती है|

परन्तु native हरयाणवी इस फिल्म से इतनी warning जरूर ले लेवें कि जब एक जाट जिसको कि हरयाणा की दबंग व् सक्षम रेस बोला जाता है, उसकी इतनी बेइज्जती करने की जुर्रत यह लोग कर सकते हैं, तो बाकी हरयाणवियो की क्या औकात मानते होंगे ऐसी मति के लोग; इस फिल्म से सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं| अभी भी सम्भल जाओ और निकल आओ इन जाट बनाम नॉन-जाट के धुर्वीकरण और घृणा से| वरना एक दिन तमाम हरयाणवी, हरयाणा में ही बोलने-चलने-उठने-बैठने-मिलने-झुलने तक के गुलाम बना दिए जायेंगे| And believe me ऐसी फ़िल्में आ ही इस तरह के एजेंडा के तहत रही हैं|

बेसब्री से इंतज़ार है कि कब कोई हरयाणवी लेखक शुद्ध हरयाणवी संस्कृति के सकारात्मक पहलुओं पे स्क्रिप्ट लिखने की जुगत व् जिद्द बैठा पायेगा|

P. K. Malik for NH Reviews - 22/05/15


Bigg Boss 7 Episode 68
काम्या पंजाबी ने सर्वप्रथम कहा, "Sophia तो लड़की है और एक लड़की ऐसे काम नहीं करेगी"
जब Sophia और Andy में से एक को घर के नौकर की तरह काम करने के लिए nominate करना था तो कैसे 'काम्या पंजाबी' ने सर्वप्रथम ये कहते हुए कि,

"Sophia तो लड़की है और एक लड़की ऐसे काम नहीं करेगी'

और Andy को Nominate कर दिया|

हाहाहाहाह........ जो काम्या 67वे दिन के Episode में Elly के मामले में Sangram Singh द्वारा Step-Down करने में Sangram की ethics को दरकिनार कर मर्द द्वारा औरत को छोटा समझने की मानसिकता को उकसा रही थी; वही काम्या 68वे एपिसोड में (सिर्फ एक दिन बाद ही) कैसे झट से बता गई कि इस मानसिकता की असली शिकार तो वो ही है|

मैडम सिर्फ लिबास बदल लेने से अंदाज नहीं बदलता| लेबल के अंदर के माल की असलियत तभी तक छुपी होती है जब तक पैकेजिंग नहीं खुलती| 67वे दिन दिखाई विकृत स्व्छंदता (skewed openness -विकृत ही कहूंगा अन्यथा याद रखती कि गए दिन मर्द-औरत के मामले में Sangram पे क्या टिप्प्णी की थी) की साफगोई तो एक ही दिन बाद स्वत: ही छलका गई और विषय में अंकित बात कहते हुए एंडी को nominate कर गई|

कम से कम सोफिया को ना चुनने के पीछे उसके लड़की होने का कारण नहीं दे वैसे ही एंडी को nominate कर देना था......poor Andy!

P. K. Malik for NH Reviews - 22/11/13


Bigg Boss 7 Episode 68
काम्या पंजाबी ने सर्वप्रथम कहा, "Sophia तो लड़की है और एक लड़की ऐसे काम नहीं करेगी"
जब Sophia और Andy में से एक को घर के नौकर की तरह काम करने के लिए nominate करना था तो कैसे 'काम्या पंजाबी' ने सर्वप्रथम ये कहते हुए कि,

"Sophia तो लड़की है और एक लड़की ऐसे काम नहीं करेगी'

और Andy को Nominate कर दिया|

हाहाहाहाह........ जो काम्या 67वे दिन के Episode में Elly के मामले में Sangram Singh द्वारा Step-Down करने में Sangram की ethics को दरकिनार कर मर्द द्वारा औरत को छोटा समझने की मानसिकता को उकसा रही थी; वही काम्या 68वे एपिसोड में (सिर्फ एक दिन बाद ही) कैसे झट से बता गई कि इस मानसिकता की असली शिकार तो वो ही है|

मैडम सिर्फ लिबास बदल लेने से अंदाज नहीं बदलता| लेबल के अंदर के माल की असलियत तभी तक छुपी होती है जब तक पैकेजिंग नहीं खुलती| 67वे दिन दिखाई विकृत स्व्छंदता (skewed openness -विकृत ही कहूंगा अन्यथा याद रखती कि गए दिन मर्द-औरत के मामले में Sangram पे क्या टिप्प्णी की थी) की साफगोई तो एक ही दिन बाद स्वत: ही छलका गई और विषय में अंकित बात कहते हुए एंडी को nominate कर गई|

कम से कम सोफिया को ना चुनने के पीछे उसके लड़की होने का कारण नहीं दे वैसे ही एंडी को nominate कर देना था......poor Andy!

P. K. Malik for NH Reviews - 22/11/13


Big Boss 7, Episode 67
Step down of Sangram infront of Elly and comments from Kamya and Gauhar
अब काम्या और गौहर को कौन सझाये कि संग्राम ने एल्ली से हारने का निर्णय इसलिए नहीं लिया कि वो लड़की है, अबला है या एल्ली के औरत होते हुए संग्राम उसको खुद से छोटा या तुच्छ मानता है| बल्कि इसकी वजह एक तो यह थी कि कोई भी सच्चा पहलवान औरत को दर्द में नहीं देख सकता (जैसे कि जब एल्ली के पैर ज्यादा दर्द करने लगे तो संग्राम ने स्टेप-डाउन कर लिया) और दूसरा यह थी कि यह अखाड़ों और पहलवानों की बुनियादी व् नैतिक शिक्षा का अंग होता है कि औरत मर्द से हर नैतिकता पर बड़ी होती है और नैतिक तौर पर मर्द का औरत से कोई मुकबला नहीं होता, औरत इसमें सर्वोपरी मानी जाती है| खैर इन दोनों की भी गलती नहीं है; छोटी-से-छोटी चीज में भी कम्पटीशन और जीत का लालच इंसान की नैतिकता की समझ को खा जाता है|

जब पाइप पर चढ़ने की एक्सरसाइज शुरू हुई मैं तो उसी वक्त समझ गया था कि बिग बॉस के घर में एल्ली तो क्या कोई भी संग्राम से इस एक्सरसाइज में नहीं जीत सकता, और क्योंकि संग्राम को अपना स्टैमिना पता था इसलिए उसकी खेल शुरू होने से पहले वाली शंका सही निकली|

और फिर संग्राम ने एल्ली के पैरों में दर्द को देखते हुए खुद को स्टेप-डाउन कर लिया कि कहीं एल्ली को इस कम्पटीशन से ज्यादा दर्द ना हो जाए, अन्यथा बाद में वो खुद बता चुका है कि वो ऐसी क्रिया अढ़ाई घंटे लगातार कर चुका है, जो दिखाता है कि वो अपने स्टैंड पर शुरू से अंत तक क्लियर था|

उम्मीद है कि जो ये कहते हैं कि संग्राम को स्टैंड लेना नहीं आता, यह वाक्या उनकी गलत फहमी दूर कर देगा|

वैसे घरेलु हिंसा, मर्द-औरत की मार-पीट के किस्से सर्वसमाज में इसका अपवाद रहते हैं फिर भी जो मैंने संग्राम के सानिध्य में प्रस्तुत किया है वो चन्दन की शीतलता वाला वो गुण है जो एक पहलवान की बुनियादी शिक्षा का हिस्सा होता है| और किसी को लगे कि मैं फेंक रहा हूँ तो आप हरियाणा, दिल्ली, यू. पी. के अखाड़ों में जा के इस गुण की शिक्षा के असर को महसूस कर सकते हैं|

हालाँकि उसने खुद हार के अपने लिए मुसीबत जरूर खड़ी कर ली है जो शायद उसको महँगी पड़े| फिर भी उम्मीद है कि वो कम्पटीशन में बना रहे और अंत तक जाए|

P. K. Malik for NH Reviews - 21/11/13



Jai Dada Nagar Kheda Bada Bir


Publication: NHReL

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