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!!!......ईस्स बैबसैट पै जड़ै-किते भी "हरियाणा" अर्फ का ज्यक्र होया सै, ओ आज आळे हरियाणे की गेल-गेल द्यल्ली, प्यश्चमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड अर उत्तरी राजस्थान की हेर दर्शावै सै| अक क्यूँ, अक न्यूँ पराणा अर न्यग्र हरियाणा इस साबती हेर नैं म्यला कें बण्या करदा, जिसके अक अंग्रेज्जाँ नैं सन्न १८५७ म्ह होए अज़ादी के ब्य्द्रोह पाछै ब्योपार अर राजनीति मंशाओं के चल्दे टुकड़े कर पड़ोसी रयास्तां म्ह म्यला दिए थे|......!!!
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साम्मण
 
रय्म-झ्य्म की न्यरोळी झड़ी, पीन्घां की चरड़-मरड़, कोथळीयों के लारों-लंगारों के संग-संग बाहणों की पोहंचियों के संदेशों-वचनों का मिन्हा

साम्मण अध्याय 1 - 'साम्मण'

नीम्बाँ कै निम्बोळी लागी सामणीया कद आवैगा,...जियो हे! मेरी माँ के जाए कोथळी कद ल्यावैगा|

Pronunciation: सामण/साम्मण (Hariyanvi), श्रावन/सावन (Hindi), Saamman/Shrawan (English)

बाबत: "साल के इस मिन्हे का हरियाणे (आज का हरियाणा, हरित-प्रदेश, दिल्ली अर उत्तरी राजस्थान) खात्तर के मतलब अर अहमियत हो सै"
साम्मण का मिहना, हरयाणा अर अनुष्ठान-संस्कार:


साम्मण हिन्दू कैलेंडर का पांच्मा मिहना हो सै| साम्मण के मिहने का हरयाणे की संस्क्रती अर लोक-जीवन म्ह साल के बाकी के मिह्न्याँ तैं सबतें घणा अर ऊँचा महत्व सै| इस मिहने गेल हरयाणे की खेती, त्यौहार, गीत-संगीत अर भक्ति का न्यारा-ए-मेळ सै|

नई ब्याहता अर साम्मण: समाज्यक रीती-रय्वाज ज्यूकर अक ब्याह अर नई ब्याहता की इस मिहने गेल ख़ास लाग बताई। लाग याह अक नई ब्याहता की ज्यंदगी के पह्ह्ल्ले साममण नैं वा अपणे पीहर म्ह रह्या करै, कारण अक उसनें सुसराड़ म्ह आपणी बाळकपण की सखी-सहेलियां गेल्याँ झूल्ली होई झूल-पींघ याद ना आवें। दूसरी अक ब्याहता की ज्यंदगी की पहली कोथळी उसके सुसराड़ तैं पीहर आण का रय्वाज सै।

बेटी अर साम्मण: ज्यूकर ऊपर बताया अक पह्ल्ले साम्मण तै बेटी की कोथळी सुसराड़ तैं आया करै, पर इसके आग्गै बेटी की कोथळी पीहर तैं जाया करै। कोथळी पहुंचाण का सबतें उत्तम बख्त साम्मण के लागदें अर तीज के त्यौहार आळए द्य्न ताहीं मान्या गया सै, इस टेम तैं उक्कें पाछै पोहंची होई कोथळी मजबूरी की हो सै, रंग-चा की नहीं अर तीज तैं पाच्छै कोठळी ले कें जाणीये भाई नै, बेबे की नणन्द-सास्सु अर आड़े लग अक पड़ोसणां के भी तांने अर उल्हाणे सुणने पड़या करें।

कोथळी अर भाह्ण-भाई का प्यार: आच्छे संस्कारित अर लिहाज-शर्म आऴए घरां म्ह, भाह्ण अर भाई के प्यार की जो ऊँची टीस/उभक/उल्लाह्स 'भाःण का भाई की कोथळी ले कें आवण की बाट के लोक-गीतां म्ह' साफ़ देखी जा सकै सै। यू इह्सा मौका हो सै ज्यब भाह्ण की अपणे भाई खात्तर प्यार की मरोड़ गगन चूम रही हो सै, वा हो तो सै सुसराड़ म्ह पर उसका मन पीहर तैं आण आळी राह म्ह अर पीहर की यादाँ म्ह इह्सा रम्या हो सै अक वा गा उठै सै,

  1. "नीम्बाँ कै निम्बोळी लागी सामणीया कद आवैगा,...जियो हे! मेरी माँ के जाए कोथळी कद ल्यावैगा|"

  2. अळी-ए-गळी मेरी नणदी मनड़ा फिरै, मनडे नै ले ली मेरी ज्यान, जूड़ा तै हाथी-दांत का| MP3

ब्याह अर साम्मण: साम्मण का मिहने म्ह हरियाणवी समाज म्ह ब्याह-वाणयाँ की मनाही रही सै, इस मिहने म्ह इह्सा प्रतिबन्ध होण के पाच्छे साम्मण म्ह मौसम के पल-पल बदलते मय्जाज नैं ठहराया जा सकै सै, दूसरा कारण यू भी हो सकै सै अक इस टेम लोग-बाग़ आपनी खेती-बाड़ी नुलाण-पुताण म्ह जुटे हों सें, जिसके कारण लोग-बाग़ धोरै ब्याह-वाणयाँ जिह्से लांबी तैयारी अर बख्त लेण आळए कारज करण बाबत बख्त निः होंदा|

पोंह्ची: दुनियां के सबतें सबूती मान्ने जाण आळए भाहण -भाई के प्रेम अर गठबंधन का ताग्गा हो सै पोंह्ची| इस बारे म्ह तळऐ मोकळआ पढोगे| (28/07/2013)


साम्मण के मिहने के तीज अर त्यौहार:


तीज: हरियाणवी समाज की तारिखाँ-त्योहारां म तीज का त्यौहार वर्ष का सबतें पहला त्यौहार मान्या गया सै| तीज के स्वागत बाबत हरियाणवी कहावत भी बणी सै अक, 'आ गई तीज, बो गई बीज'| उतरदे साम्मण यानी 'शुक्ल पक्ष तृतीया' की तीज हो सै| इस त्यौहार कै शुरू होंदे-एं हरियाणवी जन-मानस के त्योहारां की झड़ी सी लाग ज्या सै|

अर क्यूँ अक पराणे बख्तां तैं ए साम्मण की फुहार पड़दें-ए-श्यात खेती हरी भरी हो ज्या सै, जेठ अर साढ़ की लूवाँ तैं तपदी धरती, लोग-बाग़ अर जी-ज्यनोर सबनें राहत की सांस मिल ज्या सै, ताज़ी-ताज़ी हुई लामणी (गेहूं कटाई-कढाई) अर आंधड़ भरी धूळ-माट्टी-ग्यरद तैं अंटे पड़े असमान-रूख-हेल्ली-अटरियाँ की धुवाई सी हो सब किमें धुळया-धुळया हो चमक उठै सै, तो हर चित-मन म्ह नै स्फूर्ति अर ताजगी भर दे सै| तो इन्हें सब बात्तां कै कारण साम्मण के मिहने का आपणा न्यारा-ए रौब हो सै|

झूल-पींघ-साम्मण अर हरियाणवी लोग: आज के जम्मान्ने म्ह तै फेर भी बड्डी-बड्डी झूल टोहें तैं मिलें सें (छोटी-छोटी तो हरियाणे म्ह आज भी भों-किते देखी जा सकें सें) एक जम्मान्ना (आज तैं १०-१५ साल पहल्यां कह ल्यो) होया करदा ज्यब बड्डे-बड्डे बाग्गां म्ह नीम-बड़-आम-शीशम-कीकर के रूखां की इस ढाळ छंगाई (बेढंगी डाळीयों को काटना) करी जाया करदी अक झूल घालण ताहीं लंबे-लंबे ढाळए छोडडे जाया करदे| इन ढालयाँ इतनी ऊँची पींघ घाल्ली जाया करदी अक कमजोर दय्ल आळी लुगाई तो एक झोट्टा (झूले को शिखर तक पहुँचाना) भी लेंदी होएँ काँप ज्याया करदी|

सास्सु का नाक तोड़ कें ल्याणा हुआ करदा पींघण की नाक का बाळ (पींघ को ऊँची से ऊँची चढ़ाणे की होड़): सास-बहु के रय्स्ते कितणे कुढ़ाळए हो सें, अर बहु सास्सु का मजाक बनाण के किह्से-किह्से मौके टोह लिया करदी, इस बात का अंदाजा इसे बात तैं-ए लाया जा सके सै अक वा पींघ सबतें ऊँची अर उस पींघ पै झूलण आळी बहु सबतें ढेठी मान्नी जाया करदी जो "झूल्दें-झूल्दें लाम्बा हाथ लफा के सास्सु का नाक तोड़ ल्याया करदी"| सास्सु का नाक तोड़ण का मतलब हो सै, उस रूख की सबतें ऊँची ढाळी के पत्ते तोड़ कें ल्याणा जिसपे अक पींघ घली होंदी| दाएँ और दिए "साम्मण के पारम्परिक लोक-गीत" भाग के गीत सुण कें अंदाजा लगाया जा सकै सै अक तीज के त्यौहार का हरियाणवी जन-मानस के चित तैं कितणा गहरा जुड़ाव रह्या सै|

तीज अर खाण-खुवाण का चा: जितणा तीज्जां के त्यौहार पै झूलण अर झुलाण का चा हो सै उस्तें भी घणा खाण अर खुवाण का हो सै| इस द्य्न जितणे पकवान हरियाणवी रसोई म्ह बनाएँ जा सें इतणे कै तो द्य्वाळी-दशहरे पै बनै सें अर कै होळी-फाग पै|

साम्मण के मिहने के मिष्ठान अर पकवान: घेवर, फिरकी, बड़े-बताशे, गुलगुले-सुहाली, माल पूड़ा, साधारण पूड़ा, पकोड़े (प्याज, आलू, गोभी, पनीर, बैंगन, मटर), भुजिया, ब्रेड-पकोड़ा, मठ्ठी, हलवा-खीर, पूरी

तीज अर हरियाणवी बीरबान्नी का सयंगार: तीज का त्यौहार हरियाणवी संस्कृति के रंग-चायाँ के उन स्वर्णम मौक्याँ म्ह तैं एक मान्या गया सै ज्यब उसके सोळआ सयंगार की छटा देख, माणस मन्त्र-मुग्ध हो ज्याया करदा|

अंधी आधुनिकता अर पराणे खुल्लेपण का घुटता गळ: बेरा नी कुणसी आधुनिकता की ललाट म्ह देश बोळआ होया फिरै सै अक आज के जम्मान्ने म्ह माँ आपणी बहु-बेटियां नैं पींघण घालण की सोच भी निः सकदी| डर लाग्या रह सै अक कदे को बैरी के हत्थे ना बहु-बेटी चढ़ ज्या| अर जडै अक पराणे बख्तां म्ह माँ आपणी बहु-बेटियां खात्तर खात्ति के छोरे को बला साम्मण लाग्दें की श्यात कढाईद़ार पाटडी बणवाया करदी, दादा-बाब्बू पै मजबूत ज्योड़े (रस्से) बंटवाया करदी, कै बजार तैं मंगवाया करदी अर बहु-बेटियां नैं बे-खौफ हो बाग्गाँ म्ह झूलण घाल्या करदी| अर बाग्गाँ म्ह भी बाहणां के भाई अर भाभियाँ के देवर उन ताहीं झूलावण बाबत बाट देखते पाया करदे|

पर आज, आज की आधुनिकता तो समझ म्ह-ए ना आंदी| ओळएं-कोळएं हरियाणे की संस्कृति कै डंडा देणीये बेरा नी कुण्से खुल्लेपण के झंडे गाढ़, आपणी पीठ थप-थपा रेह सें अक "ना झूल रही ना टूम रही, बस एक नंगी नार या घूम रही"| पहल्यां तन ढके होया करदे तो द्यल खुल्ले, आज आधुन्य्कता के नाम पै तन तो उघड़े सें अर मन काळए, फेर भी शेर-के-बच्चे पराणे बख्त अर हरियाणे म्ह आज भी जडै-जडै यें चीज जिन्दा रह रिह सें, वें इन्नें बिसराणे का कोए मौका निः छोडदे|


सलूमण (रक्षा-बंधन): साम्मण मिहने की परणवासी का द्य्न! सलूमण भाई-भाःण के प्यार का अनूठा पर्व सै, जो अनंत-काल तैं मनाया जा रह्या सै| इसका सही कारण अर उत्पत्ति तो शोध का मसौदा रही सै पर कुछ ऐतिहास्यक उदहारण यूँ रहे सें:
  • राणी कर्णावती- हुमायूं: सन १५३५ म्ह ज्यब चित्तौड़ की राणी व्यध्वा होई तै गुजरात के सुल्तान बहादुर सिंह के हमले तैं बचाव बाबत हुमायूं ताहीं पोंह्ची अर सन्देश भ्यज्वाया अक हुमायूँ आवै अर म्यरे राज की रक्षा करै, जो के हुमायूँ नें दूसरे धर्म का होंदे होयें भी बखूबी न्य्भाया था|
तै या सै एक पतळए से ताग्गे की महिमा| सलूमण आळए द्य्न हरियाणे की छटा न्यराळी हो सै| हरियाणा सरकार भी इस द्य्न भाःणां तैं रोडवेज की बसां म्ह भाई के घर पोहंची बांधण जाण बाबत कोए भाड़ा निः ल्यन्दी, ब्यल्क विशेष बस-सेवा और उपलब्ध करावै सै| शुगन के तौर पै बेबे भाई के हाथ पै पोंह्ची बाँध, भाई नें मिठाई खुवा भाई तैं अपणे सुख-दुःख म्ह गेल खड्या रहण के प्रण ले सै अर बदले म भाई सौण के नां का हाथ-रपिया, उपहार अर बेबे का साथ नय्भावण का वचन भरया करै|


चित्र म: एक भाःण का अपणे भाई के नां लिख्या होया पोंह्चियों में गूंथा सन्देश



नाग-पंचमी: साम्मण मिहने की कृष्ण पक्ष की पाच्चम! इस द्य्न ब्याहता बीर नाग-देवाँ की धोक मारया करैं| इस द्य्न हिन्दू धर्म मान्यताओं म्ह चर्चित नौ नागों को सबतें बड़ा पूजनीय मान्या गया सै, जिसमें अक अनंतनाग, वासुकीनाग, शेषनाग, पदमनाभनाग, कम्बलनाग, शंखपालनाग, धृतराष्ट्रनाग, तक्षकनाग अर काळीयानाग की मानता सबतें बड्डी बताई|

श्रावण शिवरात्रि: साम्मण मिहने की कृष्ण पक्ष की चौदस! शयवजी (शिवजी) भगवन अर हनुमान भगवन, हिन्दू मत के वें दो सबतें बड्डी शक्ति सें जो हरियाणे की धरती की हर कूण - हर ढूंग म्ह सबतें घणी पूज्जी जा सें| इह्सा कोए गाम, कोए खेड़ा, कोए अखाड़ा हरियाणे म्ह नहीं पावैगा जडै शिवजी भगवान अर बजरंग बली का जयकारा ना होंदा हो| अर ज्यब बात साम्मण के मिहने की आ ज्या सै तो भम-भोळए की भक्ति का जनून सयर च्य्ढ़ कें बोल्लण लाग ज्या सै|

समुद्र-मंथन अर नीलकंठ: व्यष्णु पुराण के मतानुसार साम्मण के मिहने म्ह-ए ऐतिहास्यक समद्र-मंथन होया था, जिसमें १४ ढाळ के
मणिक रत्न ल्यकड़े थे, जिसमें तैं १३ तो राक्षसां नैं बांड लिए थे अर हलालाल व्यष का प्याला भगवान शंकर नैं पिया था| मानता सै अक उसे बख्त तैं साम्म ण म्ह हरिद्वार जा कें गंगाजल ल्याण का अर चौदस नैं श्य्वरात्रि मनाई जा सै| अर क्यूँ अक भगवान श्य्व्जी के व्यष का प्याला पीण तैं उनका गळआ लील्ला पड़ग्या था तो वें नीलकंठ बाजे|

महामृत्युंजय मन्त्र की महिमा: अर उनके गळए अर देहि तैं व्यष का असर तोड़ण बाबत महामृत्युंजय मन्त्र का जाप करया गया, जयब-ए तैं इस मन्त्र की मुसीबत के बख्त जपण की मानता भी सै| कह्या जा सै अक भीड़ पड़ी म्ह इस मन्त्र का जाप चमत्कारी होंसला दे सै| मन्त्र न्यू सै:

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।


खेती अर किसान खात्तर साम्मण के मिहने की महिमा:

नुळआई: जेठ-साढ़ म बोई गई फसल ज्युकर बाड़ी (कपास), बाजरा अर उसतैं पहल्यां फग्गण-माह म बोई गई ईंख की फसल की नुळआई-खुदाई का काम इस मिहने म बड़े जोर-शोर तैं चाल्या करै|


बंधाई: कात्यक-मंगसर म बोये होए ईंख, इस बख्त मींह-पाणी लागतें एक-सेत्ति बधण पै हो लिया करै, जिसतें अक ईंख नैं बाँधण का काम भी गेल-गेल शरू करणा पड़या करै, ताके ईंख किसे भी ढाळ के आंधी-तूफ़ान म्ह पड़ ना ज्या|

बुवाई: जीरी की बुवाई इस मिहने म्ह पुरजोर पै होया करै|

क्य्सान की सहायक जातियों के कारोबार:

लुहार: ज्युकर अक ऊपर पढ़ कें अंदाजा लाया जा सके सै अक साम्मण के मिहने म्ह खेती का कितणी ढ़ाळ का काम बाज रह्या हो सै, अ तो इस टेम क्यसान की सहायक लुहार जाति का काम भी जोर-शोर तैं चाल्या करै| खेती म्ह काम आण आळए औजार ज्युकर नई हळ की फाळी, कस्सी-कसौला, खुरपी-खुरपे-खुदाळी बनाण का काम, पूराणयाँ कै धार लगाणे का काम खूब जोराँ पै चाल्या हो सै|

लुहार को कारोबार मिलण की निर्भरता मींह-बादळ पै भोत घनी टिकी हो सै, जितणा घणा मींह उतणा-ए घणा खेताँ म्ह काम तै उतणी-ए लुहार की जरूत|

खात्ति: आज-कायल तो शहरां म्ह बड्डी-बड्डी फैक्ट्री खुलगी सें, निः आज तैं १०-१५ साल पहल्यां खात्तियां का भी खूब कारोबार होया करदा इस मिहने म्ह| ज्युकर कस्सी-कसोल्याँ के बिंडे बनवाणा, हळ की बाजू बनाणा अर इह्से-ए छोटे-मोटे खेती के औजारां की बणाई अर मरम्मत के काम|

कबीरपंथी-रविदासी जाति-भाईयों की कमाई का मिहना: ज्यब खेत्तां म्ह ईतणा काम छ्य्ड रह्या हो तो कबीरपंथी अर रविदासी भाईयाँ कै बयना क्यूकर पूरा हो सकै सै| खेत नुळआण तैं ले ईंख बंधाई खात्तर इस टेम मजदूराँ की मारो-मार बाज रीह हो सै|

अर जै मींह-पाणी आच्छा हो ज्या तै फेर तो मजदूरी का भा भी असमान छूण नैं हो सै, किसान-जमींदाराँ म्ह भी मारोमार माच्ची हो सै, जो पहल्यां आग्या वो पहल्यां मजदूर ब्य्ह्साग्या अर जो रह्ग्या ओ फेर बिहारी मजदूर टंडवाळदा हरियाणे के शहरां अर रेल-टेशणां पै देख्या जा सकै सै|

उरै जाणन की बात सै अक हरियाणे म्ह सबतें बड्डी किसान-जमींदार ज्यात जाट अर बाहमण सें, फेर रजपूत, रोड़, अहीर अर ब्यसनोई बड्डी जोत की खेती करया करें सें| पराणे जम्माने म बाणीयाँ की भी माड़ी-मोटी जोत होया करदी पर आजकाल वें घनखरे जमीन बेच शहरां म्ह जा लिए| माड़ी-मोटी जोत की खेती खात्ति-छिम्बी भी करें सें|

लेखक: फूल कुमार मलिक (29/07/2013)


पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सावन गीत - हरियाणवी (खड़ी बोली)

गळियों तो गळियों री बीबी मनरा फिरै
हेरी बीबी मनरा को लेओ न बुलाय।
चूड़ा तो मेरी जान ऽ ऽ चूड़ा तो हाथी दाँत का ।

काळी रे जंगाळी मनरा ना पहरूँ
काळे म्हारे राजा जी के बाळ
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।

हरी रे जंगाळी मनरा ना पहरूँ
हरे म्हारे राजा जी के बाग,
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।

धौळी जंगाळी रे मनरा ना पहरूँ
धौळा म्हारे राजा जी का घोड़ा,
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।

लाल जंगाळी रे मनरा ना पहरूँ
लाल म्हारे राजा जी के होंठ,
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।

सासू नै सुसरा सै कह दिया –
ऐजी थारी बहू बड़ी चकचाळ
मनरा सै ल्याली दोस्ती,
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।

नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे
सावण का मेरा झूलणा
एक सुख देखा मैंने अम्मा के राज में
हाथों में गुड़िया रे, सखियों का मेरा खेलणा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे…

एक सुख देखा मैंने, भाभी के राज में
गोद में भतीजा रे गळियों का मेरा घूमणा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे…

एक सुख देखा मैंने बहना के राज में
हाथों में कसीदा रे फूलों का मेरा काढ़णा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे…

एक दु:ख देखा मैंने सासू के राज में
धड़ी- धड़ी गेहूँ रे चक्की का मेरा पीसणा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे…

एक दुख देखा मैंने जिठाणी के राज में
धड़ी- धड़ी आट्टा रे चूल्हे का मेरा फूँकणा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे
सावण का मेरा झूलणा
सौजन्य: देवेन्द्र कुमार (04/08/2013)
साम्मण के दोहे:
  1. होइ न्यम्बोली पाक कै, इबके मिट्ठी खूब,
    मौसम कै स्यर पै धरी, साम्मण नै आ दूब|

  2. पड्या साढ़ का दोंगड़ा, उट्ठी घणी सुगंध,
    जोड़ घटा तै यू गया, साम्मण के संबंध।

  3. मन का पंछी उड़ चल्या, बाबुल की दल्हीज़,
    कितने सुख-दुख दे गई, या हरियाली तीज।

  4. आ भैया बरसें नैन, बादल उठ्ठें झीम,
    साम्मण में मीठा होया, फल कै कडुआ नीम।

  5. जीवन भर इब तार ये राखणे पड़ें सहेज,
    पाछले साम्मण चढ़ गई, बाहण अगन की सेज।

  6. उडे हवा मैं चीर है, अर चढ़ी गगन तक पींग,
    बाद्दल सा पिय का प्यार सै, तन-मन जावै भीग।

  7. री ननदी तू ना सता रही घटा या छेड़,
    बरस पड़े जै नैन ये कडै बचेगी मेड़|

  8. घेवर देवर तै दिया साम्मण का उपहार,
    पिया आपणे तै दिया रुक्खा-सुक्खा प्यार।

  9. पा कै माँ की ‘कोथली’ भूल गई सब क्लेस,
    मन पीहर में जा बस्या तन ही था इस देस।
लेखक: प्रोफेसर राजेंद्र गौतम (26/07/2013)



साम्मण के पारम्परिक लोक-गीत:
  1. लाल चुंदड़ी दामण काळआ, झूला-झूलण चाय्ल पड़ी MP3
  2. दो झूलें दो झोटे दे रही दो च्यार कड़ी थी जड़ म्ह| MP3
  3. सामण का महिना कह तीजाँ का त्यौहार और पींघ-पाटडी था ले किताबो हो ले नै तैयार| MP3
  4. नन्ही-नन्ही बुंदिया हे माँ मेरी पड़ रही री Video
  5. लाइए भाभी लाइए सासू का नांक तोड़ कें, और द्यूंगा झोटा मैं इबकै थोड़ी जोर तैं| Video
  6. बादळ उठ्या री सखी मेरे सासरे की ओर Video
  7. बादळ उठ्या री सखी मेरे सासरे की ओर-2 Video
  8. बादळ उठ्या री सखी मेरे सासरे की ओर-3 Video
  9. तू राजा की राजदुलारी, मैं सिर्फ लंगोटे आळआ सूं Video
  10. अगड़-बम-बम-बम और बम लहरी Video
  11. साम्मण बरसै जम कें रै गौरी, आजा छम-छम करकें Video
  12. अळी-ए-गळी मेरी नणदी मनड़ा फिरै, मनडे नै ले ली मेरी ज्यान, जूड़ा तै हाथी-दांत का| Video
  13. चौगरदे नें बाग़ हरया, घनघोर घटा सामण की Video
  14. साम्मण बरसै हे री सखी Video
  15. सामण आया री सखी-री आया तीजां का त्यौहार
  16. मीठी तो कर दे री माँ कोथळी, बेबे कै ले कें जाऊं|
  17. नन्ही-नन्ही बूँद-पड़ें, गोडे चढ़गी गारया, लखमीचंद की टांग टूटगी सांग बिगड़ ग्या सारा|
  18. नीम्बाँ कै निम्बोळी लागी सामणीया कद आवैगा, जियो हे मेरी माँ के जाए कोथळी कद लावैगा|
  19. छहों जणी का झूमका हे री मेरी सासड़ राणी कोई छहों तो पाणी न ज्याँ|
  20. आया तीजाँ का त्यौहार आज मेरा बीरा आवैगा|
(30/07/2012)

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"साम्मण उतरया - म्हारे हो अंगणा"

टेक: 'बादळ उठ्या री सखी, मेरे सांसरे की ओड़'

साम्मण उतरया म्हारे हो अंगणा, घटा मतवाळी छा रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब म्ह जावै धूळी||

बादळ उमडें-घुमडें, रुक्खां कै गळमठ्ठे पावैं,
प्यछ्वा के झ्यकोळे आवें, ओळे-बोळे-सोळे आवें|
मोराँ के पिकोहे गूंजें, स्यमाणे - ज्यूँ अम्बर चूमैं,
नाचण के हिलोरें पड़ें, गात्तां म्ह डयठोरे गड़ैं||
सुवासण ज्यूँ हरियल खेती, जावै चढ़ी-ए-चढ़ी|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब म्ह जावै धूळी||

कोथळीयाँ के लारें लागैं, शक्कर और पारे घालैं,
द्य्लां म्ह हुलारे उठैं, भाहणां के रै हिया छूटें|
पींघां की च्यरड़-म्यरड़, सास्सुवां के नाक टूटें,
माँ के जाए कद आये न्यूं, नैनां म्ह तें अश्रु फूटें||
मुखड़ा द्य्खा दे रे बीरा, करड़ी बाट जोह रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब म्ह जावै धूळी||

फून्द्याँ आळी पोंह्ची बुणूं , बाग्गां के फूल जडूं,
छ्यांट-छ्यांट रंग धरूं, अर बीरे की कलाई भरूँ|
मूळ तें हो सै सूद प्यारा, भतिज्याँ के लाड लड़ूँ,
माँ-बाप्पां से भाई हों सैं, किते छिक्कें किते टांड धरुं||
ना चहिये मैंने सोना-चांदी, भाई की मेरे उम्र हो लांबी,
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब म्ह जावै धूळी||

गात का जागणा होवै , चित का बेरा पाटणा होवै,
आत्मा तैं प्रकृति का मिलणा, गजब का चांदणा होवै!
जीवन उमंग में उछाल आवै, आकांक्षाओं का जाग आवै,
हौंसले की भोर होवै, इत-उत हर ओर होवै!!
'फुल्ले-भगत' गावै रमता, स्यमचाणे बीच ज्यूँ गड्या हो चिमटा||
जहर पड़ै पीणा - फेर भी हौंसले तैं जीणा, घड़ी बख्त की गा रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब म्ह जावै धूळी||

साम्मण उतरया म्हारे हो अंगणा, घटा मतवाळी छा रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब म्ह जावै धूळी||

(30/07/2013)



साम्मण अर मींह की कहावतें:
  1. आई तीज बोगी बीज!
  2. सास्सु का नाक तोड़ ल्याणा! (इतनी ऊँची पींघ झूलने की हिम्मत की पींघ पेड़ की टहनियों में जा लगे|)
  3. साढ़ सूखा ना सामण हरा!
  4. जब राम चौगरदे कै एक-सा निसर ज्या, मींह जोर का बरस ज्या!
  5. मंद बूँदा की झड़ी, मरी खेती भी हो ज्या खड़ी!
  6. जय्ब चींटी अंडा ले चलै, चिड़िया नहावे धूळ मैं,
    कहें स्याणे सुण भाई, बरसें घाग जरूर! (When ants carry eggs, sparrows play in sand - then it should be presumed that rains are very near)
  7. चैत चिरपड़ो और, सावन निर्मलो|
  8. ज्यब चमकै पच्छम-उत्तर की ओर, तब जाणो पाणी का जोर|
  9. बांदर नै सलाह दे, अर बैया आपणा ऐ घर खो ले! (बरसदे मींह म्ह अपणे घोंसले तैं बैये द्वारा बरसात म्ह बिझते बन्दर को घर बनाने की सलाह देने पे, बन्दर उसी का घोंसला तोड़ फेंकता है|)

‘तीज रंगीली री सासड़ पींग रंगीली’(दादा लखमीचन्द का अद्भुत लोकगीत):

विशेष: यह लेख हिंदी में प्रस्तुत किया गया है, शीघ्र ही इसको इसके हरियाणवी रूपांतरण से प्रतिस्थापित किये जायेगा|

लखमीचन्द की कविता की कला को जितनी-जितनी बार निरखा जाता है, उसकी सुंदरता की उतनी-उतनी नई परतें खुलती चली जाती हैं। वह साधारण में असाधारणता को प्रस्तुत करने वाला महान् कवि है। उनके पद्मावत साँग का एक छोटा-सा नमूना उनकी महानता को प्रमाणित कर देता है। लोक-लय की मिठास, लोक-संस्कृति का चटक रंग, लोक-संवेदना की तरलता, लोक-भाषा की जीवन्तता और लोक-जीवन के बिंबों को एक छोटे-से गीत में पिरो दिया है-- लखमीचन्द ने। पद्मावत रणबीर पर मोहित हो प्रेमोन्माद में खो चुकी है। कुछ भी उसे भा नहीं रहा है लेकिन सखियों के समझाने-बुझाने से वह तीज के त्योहार पर झूला झूलने उनके साथ चली जाती है। झूला झूलते हुए सखियाँ गीत गा रही हैं। यह गीत सासड़ यानी सास को संबोधित है। तब तक पद्मावत तो कंवारी है। अतः स्वाभाविक है कि यह गीत पद्मावत की किसी विवाहिता सखी ने गाया होगा लेकिन विरह का संदर्भ विवाहिता से भी जुड़ रहा है और पद्मावत से भी। गीत इस प्रकार है:

चन्दन की पाटड़ी
री सासड़,
रेशम की द्यई झूल।

खुसीए मनावैं
री सासड़ गाणे गांवैं,
मद जोबन की गाठड़ी
री सासड़,
ठेस लगै जा खूल।

तीज रंगीली
री सासड़ पींग रंगीली,
बनिए कैसी हाटड़ी
री सासड़
ब्याज मिल्या ना मूल।

पतिए मिल्या ना
री सासड़ च्यमन खिल्या ना,
खा कै त्यवाला जा पड़ी
री सासड़,
मुसग्या चमेली केसा फूल।

लखमीचंद न्यू गावै
री सासड़ साँग बनावै,
जिसका गाम सै जाटड़ी
री सासड़,
गाणै मैं रहा टूल|


हम सब गाँव के अभावों से परिचित हैं लेकिन लोक-मन की कल्पना दरिद्र नहीं होती। किशोरियों की कहानियों में राजकुमार की ही कल्पना स्वाभाविक है। यह वह जीवन है जहाँ बड़े-से-बड़े दुख को भी छोटा करके देखा जाता है और अंजुरी-भर सुख भी जीवन को भरपूर सींचता अनुभव होता है। आम तौर पर लोकगीतों में सास को खलनायिका के रूप में दिखाया जाता है जबकि इस रागणी में युवती अपनी सास को इस रूप में नहीं देख रही है। यहाँ सास-बहू के बीच एक प्यार-भरा रिश्ता है। इसका पता इसके मीठे सम्बोधन ‘री सासड़’ से चल जाता है। सास ने बहू को झूलने के लिए साधारण पाटड़ी या झूल नहीं दी हैं बल्कि पाटड़ी चन्दन की है और झूल रेशम की। यह सही है कि पदमावत राजकुमारी है और उसके लिए चन्दन की पाटड़ी तथा रेशम की झूल दुर्लभ नहीं है लेकिन लखमीचन्द की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि वह राजसिक जीवन की कहानियों को गाँव के आम आदमी के साथ जोड़ देता है। इस गीत में भी उसने यही किया है। ‘चन्दन की पाटड़ी तथा रेशम की झूल’ का ज़िक्र करने के बाद गीत का पूरा मिज़ाज लोक के साथ जुड़ जाता है। ज़रा इस गीत की बुनावट को देखें। टेक पंक्ति में तीन चरण हैं:

चन्दन की पाटड़ी
री सासड़,
रेशम की द्यई झूल


चारों अंतरों (तोड़ के बोलों) के बाद जितनी भी स्थायी (कली) की पंक्तियाँ आई हैं उनमें गज़ब की तुकें मिलाई गई हैं। कविता की संवेदना को लेश-मात्र भी नुकसान पहुंचाए बिना तुकों का जैसा विधान लखमीचन्द ने अपनी कविता में किया है, उसका कोई दूसरा उदाहरण हरियाणी में तो छोड़िए, आप सम्पूर्ण हिन्दी कविता में नहीं खोज पाएंगे। यहाँ पहले चरण के ‘पाटड़ी’ के रदीफ़ देखिये: गाठड़ी, हाटड़ी, जा पड़ी और जाटड़ी। आंचलिकता का क्या अद्भुत रंग है इनमें। जिस सहजता से हाट को हाटड़ी और जाटी को जाटड़ी किया गया है वह कृत्रिम लगने की अपेक्षा और भी आकर्षक हो गया है। टेक का दूसरा चरण ‘री सासड़’ सभी अंतरों में दोहराया जाकर अद्भुत मिठास पैदा करता है। तीसरे चरण के ‘झूल’ की पहली ही तुक मिलाई है खूल से। अपने विशेष हरयाणी उच्चारण में खुल कैसे खूल बन जाता है यह देखते ही बनता है। उसके बाद के अंतरों में मूल, फूल, टूल का बहुत संगत प्रयोग है। इस गीत की सबसे बड़ी खाशियत यह है कि इसकी चारों कलियों में दो-दो बहुत छोटी-छोटी पंक्तियाँ हैं। इनका तुक-विधान भी दर्शनीय है। कलियों के चरणों में भी संयोजन की कुशलता दिखाई देती है। प्रत्येक कली में चरणों में समानुपातिकता है। पहला चरण छोटा है, दूसरा उससे थोड़ा लंबा। असल में यह सम्पूर्ण विधान गत्यात्मक है और इसका सीधा रिश्ता उस वातावरण से है, जिसका इसमें चित्रण है। युवतियों का दल क्रीडा करता हुआ, चूहल करता हुआ, हँसी-ठिठोली करता हुआ झूला झूल रहा है। इस वातावरण में संगीत भरा है, नाच की थिरकन है, कदम कभी लंबे और कभी छोटे पड़ रहे हैं। पूरे गीत की पंक्तियाँ भी उसी तरह नाचती हुई, थिरकती हुई प्रतीत होती हैं, जिस तरह से युवतियों का वह दल नाच रहा है, थिरक रहा है। संरचना की दृष्टि से लखमीचन्द ने रागनी के कम से कम सौ रूपों का प्रयोग किया है लेकिन यह केशव के द्वारा छंदों का अजायबघर बनाने जैसा कौतुकी प्रयास न हो कर विषय के साथ टूक मिलने का प्रयास है। शब्दों से टूक तो सारी दुनिया मिलाती है, लखमीचन्द ने संवेदना की टूक मिलाई है। इस विशेषता को पहचानने के लिए पारखी नज़र भी चाहिए।

और अब गौर करें ज़रा अर्थ की दृष्टि से! इस गीत के सभी अंतरों (तोड़ के बोलों) में बहुत मर्मस्पर्शी अप्रस्तुतों का प्रयोग हुआ है। मद से भरे जोबन का रूपक लखमीचन्द ने गठड़ी से दिया है लेकिन लखमीचन्द के उपमानों की एक विशेषता यह रहती है कि सादृश्य को क्रियाओं तक ले जाकर एक गत्यात्मक बिम्ब प्रस्तुत करते हैं। यहा भी जोबन की गठड़ी के हल्की ठेस से खुल जाने का जो संकेत कवि दे रहा है, उसमें असंख्य अर्थ-छवियाँ भरी हुई हैं। आगे पति के पास न होने पर युवती ने अपने लिए तीजों के पर्व को बनिए की ऐसी हाट के रूप में दिखाया है, जिसकी भरपूरता उसके जीवन में कोई सुख नहीं लाती। एक तरफ तो ‘तीज रंगीली, री सासड़, पींग रंगीली’ है, दूसरी तरफ मन के लिए सुख दुर्लभ हो गया है। स्थिति कुछ ऐसी है: ‘ब्याज मिल्या ना मूल’। अगले पद में बात और स्पष्ट हो जाती है। पति के पास न होने से जीवन का चमन नहीं खिला और उसकी स्थिति चमेली के मुरझाए हुए फूल जैसी हो गई। मुरझाने के लिए ‘मुसना’ क्रिया का प्रयोग हरियाणी के अलग ही स्वाद से परिचित कराता है। पूरा गीत वर्षा ऋतु के वातावरण मे मनोभावों का दिल को छूने वाला चित्रण करता है। सादगी में श्रेष्ठता का अद्भुत नमूना है यह गीत।

लेखक: प्रोफेसर राजेंद्र गौतम

साम्मण का मिहना तस्वीरों में


चित्र: रणबीर सिंह फौगाट



चित्र: न्यडाणे अर ललित खेड़े गाम की खाप-खेत-कीट पाठशाला की कीट-कमांडो बीरबानियाँ तीज के त्यौहार के मौके पै, गीत गांदी होई झूलण जांदी होई अर झूलदी होई|



चित्र: जसबीर सिंह मलिक
 



जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर  


विशेष: साम्मण के मिन्हे पै न्यडाणा हाइट्स की खोज लगातार जारी सै। म्हारी साईट के इस पद-भाग का उद्देश्य सै साम्मण अर हरियाणवी का जो भी मेळ-मान-मनुहार-लाग-लपेट तैं यें एक-दूसरे तैं जुड़े सें वें सारी बात कट्ठी इस भाग म्ह संजोणा। जै थाहमनैं इस भाग म्ह किसे भी हिस्से म्ह कोए कमी नजर आवै, या कोए चीज छूटी होई दिख्खै तो हाम्नें इस पते पै जरूर ईमेल करें: nidanaheights@gmail.com हाम्में थाहरे नाम की गेल वा चीज इसे भाग म्ह प्रकाश्यत करांगे|


लेखन अर सामग्री सौजन्य:

  1. प्रोफेसर राजेंद्र गौतम

  2. रणबीर सिंह फौगाट

  3. डॉक्टर रणबीर सिंह दहिया

  4. पी. के. म्यलक

  5. देवेन्द्र कुमार

  6. जसबीर सिंह मलिक

  7. इन्टरनेट

तारय्ख: 02/08/2013

छाप: न्यडाणा हाइट्स

छाप्पणिया: न्य. हा. शो. प.

ह्वाल्ला:
  • न्य. हा. सलाहकार मंडळी

हरियाणवी समूं अर उसकी लम्बेट

नारंगी मतलब न्यगर समूं, ह्यरा मतलब रळमा समूं




हरियाणवी तारय्खा के नाँ



आग्गै-बांडो
न्य. हा. - बैनर अर संदेश
“दहेज़ ना ल्यो"
यू बीर-मर्द म्ह फर्क क्यूँ ?
साग-सब्जी अर डोके तैं ले कै बर्तेवे की हर चीज इस हाथ ले अर उस हाथ दे के सौदे से हों सें तो फेर ब्याह-वाणा म यू एक तरफ़ा क्यूँ, अक बेटी आळआ बेटी भी दे अर दहेज़ भी ? आओ इस मर्द-प्रधानता अर बीरबानी गेल होरे भेदभाव नै कुँए म्ह धका द्यां| - NH
 
“बेटियां नै लीड द्यो"
कन्या-भ्रूण हत्या ख़त्म हो!
छोरी के जन्म नै गले तैं तले ना तारणियां नै, आपणे छोरे खात्तर बहु की लालसा भी छोड़ देनी चहिये| बदेशी लुटेरे जा लिए, इब टेम आग्या अक आपनी औरतां खात्तर आपणे वैदिक युग का जमाना हट कै तार ल्याण का| - NH
 
“बदलाव नै मत थाम्मो"
समाजिक चर्चा चाल्दी रहवे!
बख्त गेल चल्लण तैं अर बदलाव गेल ढळण तैं ए पच्छोके जिन्दे रह्या करें| - NH
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