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पल्ला-झाड़ संस्कृति
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!!!......एक बच्चा जन्म के वक्त बच्चा नहीं होता, तथापि यह तो उसको विरासत में मिलने वाले माहौल व् परिवेश से निर्धारित होता है| एक बच्चे को माता-पिता जितनी समझ जन्म से होती है| अत: माता-पिता उसको उस स्तर का मान के उसका विकास करें|......!!!
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पल्ला-झाड़ संस्कृति
पश्चिमी देश विश्व पर इसलिए धाक रखते हैं क्योंकि वहाँ लिंग-भेद न्यूनतम स्तर का है|

किसी समाज-पंथ-देश का दुनियां पर वर्चस्व इसी बात से निर्धारित होता है कि वहां लिंग-भेद (gender-bias) किस स्तर का है। कोई मुझे पश्चिम (western europe) में बैठा होने के कारण कितना ही कोसे और इल्जाम लगाए कि मुझपे पाश्चात्य सभ्यता का असर बोल रहा है, लेकिन यह पाश्चात्य सभ्यता का वो वाला असर तो कदापि नहीं है जिसके कारण भारतीय और भारतीयता अपने यहाँ पनपने वाली नई-नई बुराइयों की जड़ें उनकी अपनी संस्कृति और दोगलेपन में ढूँढने के बजाय पाश्चात्य सभ्यता पे लांछन लगा "पल्ला झाड़ " लेती है।

अपितु यह वो असर है जिसने अंग्रेजों, फ्रांसीसियों और लगभग हर यूरोपीय देश की धरती के हर कोने तक शौर्य पताका
लहराई है। फिर चाहे उसमें अंग्रेजों द्वारा 200 साल तक भारत-अमेरिका समेत 72 राष्ट्रमंडल देशों (commonwealth countries) पर राज करने की कहानी रही हो, चाहे फ्रांसीसियों द्वारा कनाडा से ले दक्षिण-अफ्रीका और मिडिल ईस्ट पे राज करने की या फिर स्पेनिशों द्वारा ब्राजील-अर्जेंटीना से ले लगभग सम्पूर्ण दक्षिण अमेरिका पर राज करने की कहानी रही हो।

जब गहनता से अध्यन करता हूँ तो पाता हूँ कि ये सब ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि इन्होनें लिंग-समानता को सदियों पहले से सुलझा रखा है। हालाँकि ऐसा नहीं कि इनका समाज लिंग-समानता के बारे एक आदर्श समाज है, परन्तु हाँ विश्व का सबसे सर्वश्रेष्ठ समाज जरूर है। ऐसे में मुझे भारतीय संस्कृत साहित्य का वो श्लोक याद आता है जो कहता है कि "यत्र नारी पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता"। हमारे समाज में तो कोई-कोई घर ऐसा मिलता है जहां नारी को बराबरी पे रखा पाया जाता है, पर इन पश्चिम वालों के यहाँ कोई-कोई घर ही ऐसा मिलेगा जहां नारी को बराबरी पे ना रखा गया हो|

और किसी समाज का लिंग-भेद जितना शून्य तक पहुंचा होता है वहाँ सभ्यताएं स्वत: बाहर के संसार को जानने के लिए उत्सुक रहती हैं वो अपने समाज से बाहर जा के विश्व-सभ्यता को पढ़ती हैं और कब्जे में लेने की सोचती हैं और वो ऐसा इसलिए कर पाते हैं क्योंकि वो अपनी अंतर-गृह विवादों को सुलझा चुके होते हैं। तभी तो कहीं कोलम्बस भारत की खोज में निकलता है तो अमेरिका खोज डालता है, कहीं वास्कोडिगामा भारत ढून्ढ देता है तो कहीं फाहयान और ह्यून-सांग चीन से निकल भारतीय सभ्यता और समाज पढ़ता नजर आता है। मुझे भारतीय समाज (जम्बू-द्वीप वाला भारत जो कि सुदूर इंडोनेशिया से ले अफगानिस्तान तक हुआ करता था) से इनके समकक्ष कोई भी ऐसा भारतीय नहीं मिलता जिसने उस काल में ऐसे विश्वभ्रमण किया हो। फिर यूरोपियन की तरह विश्व में राज करना तो दूर की बात है।

और इसे असफलता कहिये या पिछड़ापन इसका सीधा-सीधा नाता जाता है हमारी विचारधारा से, हमारे समाज की सरंचना से, उसमें औरत से व्यवहार यानी लिंग-भेद किस स्तर का है और इन्हीं के इर्द-गिर्द्ध बनती है सभ्यताओं की सोच और विकास।

और जब इन पहलुओं को सामने रख भारतीय समाज को पढ़ा जाता है तो समस्या दोगुनी जटिल हो जाती है। एक तो लिंग-भेद चरम-सीमा का और दूसरा उसपे समाज के अंतर्गत जाति-वर्ण-व्यवस्था की भू-गर्भ सी काली खाई। मैं यह नहीं कहना चाहता कि यूरोपियन में कभी रंग-नश्ल भेद के नाम पर मतभेद या झगड़े नहीं हुए, हुए परन्तु वो स्थाई कभी नहीं रहे। जैसे कि हिटलर-मुसोलिनी का किस्सा जिसको की यहूदियों के खिलाफ घृणा से जुड़ा हुआ पाया जाता है लेकिन वो चला कितने दिन? तुरंत ही खत्म कर दिया गया उसको।

लेकिन भारतीय समाज में इसका ना तो भूतकाल में कोई अंत था, ना वर्तमान में और जैसी आज की भारतीय राजनीती हो चली है उसको देखते हुए इसका सुदूर भविष्य में भी कोई अंत नहीं दीखता| वस्तुत: भूतकाल में तो यह चरमसीमा की थी। विश्व में भारत की संस्कृति को छोड़ शायद ही कोई ऐसी संस्कृति हो जो अपने ही समाज में से गुलाम चुनने या उनपे गुलामी मढ़ने की परम्परा रखती हो और विरोध करने का भी अधिकार ना देती हो। मैंने अंग्रेजों को देखा भारतियों को गुलाम बनाते, मैंने फ्रांसीसियों को देखा दक्षिण अफ्रीका के काले लोगों को गुलाम बनाते लेकिन ऐसे भारतीय सिर्फ भारत में ही हैं जिन्होनें अपने ही समाज में गुलाम बनाने की परम्परा आगे बढाई। मैंने कभी एक अंग्रेज को दूसरे अंग्रेज से गैर करवाते नहीं देखा, ना फ़्रांसिसी को देखा जबकि भारतीयता में तो वर्ण और जाति व्यवस्था का उद्देश्य ही यह रहा है|

अद्भुत सभ्यता है हमारी जिसमें दूसरे को गुलाम बनाने की पिपासा शांत करने के लिए दूसरे देशों पर आक्रमण करने की कभी जरूरत नहीं हुई और अपना चेहरा उजला दिखाने के लिए प्रचार करते आये और अभी भी करते हैं कि "भारतीय शांतिप्रिय और जियो और जीने दो के सिधांत पर यकीन" करते हैं। जबकि कटु सत्य यह है कि ऐसे वाक्य सिर्फ अपनों के आगे सफाई देने के लिए घड़े गए, विदेशी तो इनको हास्यास्पद कहते हैं। हमारी सभ्यता के वाहकों ने कभी राजा-महाराजाओं को इस स्तर का ना ज्ञान दिया ना उनमें पनपने दिया कि वो भी सिकन्दर या नेपोलियन की तरह विश्व-विजय पर निकलते| क्योंकि उनको गुलाम उनकी सभ्यता के जरिये बने-बनाये ही मिलते थे। ठीक वैसे ही जैसे आज कुछ राजनैतिक घरानों को मिल रहे हैं|

दरअसल उनका ज्ञान इसी स्तर का होता था कि राजा उनकी वाह-वाही करे और राज करे, जैसे उनको डर रहा हो कि कहीं उनकी शिक्षा से राजा विश्वविजय पर निकल गया और जीत गया तो वो उनके हाथ से निकल जायेगा। इसलिए राजा को घर में बैठे ही स्वयं को सर्वश्रेष्ठ महसूस करवाने को जातीय और वर्ण-व्यवस्थाएं खड़ी करवा दी गई| यह डरने और डराने का चरित्र हमारी सभ्यता को विश्व की एनी सभ्यताओं से कोशों पीछे धकेल देता है, दब्बू बनने की प्रवृति पैदा करता है|

क्या अपने घर में घुस के आये दुश्मन को घर से निकालना या दुश्मन से घर छुड़वाना विजय कहलाएगी? लेकिन हमारी सभ्यता ने सिखाया कि घर से दुश्मन को निकालना भी आपकी विजय है। और इसी सभ्यता का असर 1999 के कारगिल युद्ध में भी नजर आया जब पाकिस्तान की घर-घुसपैठ से कारगिल को खाली करवाया गया। क्या भारत ने पाकिस्तान का कोई हिस्सा जब्त किया या इस बात की भरपाई तक भी करवाई कि तुम्हारी घुसपैठ से जो हमारा सैन्य-संसाधन व् आर्थिक नुकसान हुआ उसकी भरपाई करो या फिर उसपे शांति-समझौता उलंघन के तहत वसूली की गई? इनमें से कुछ भी नहीं हुआ और हमारी चिरपरिचित सभ्यता के अंदाज में कह दिया गया कि हमने कारगिल फ़तेह कर लिया।

अगर कारगिल की कहानी को अंग्रेजों या फ्रांसीसियों की नजर से देखें तो वो कहेंगे कि कारगिल फ़तेह तब होती जब फ़तेह से पहले कारगिल पाकिस्तान का हिस्सा होता और उसको भारत ने अपने में मिलाया होता अन्यथा पहले से जो भारत का हिस्सा था उससे दुश्मन को भगाने में कारगिल फ़तेह कैसे हुआ वो तो मुक्त करवाना हुआ। और यही फर्क है भारतीय और यूरोपियन सभ्यता में जिसके कारण यूरोपीयनों ने विश्व पर राज किया और हम उनके समेत मिडिल ईस्ट वालों के भी गुलाम बने।

और जब तक हमारी सभ्यता के संरक्षक-संवाहक-वाहक-प्रवर्तक ऐसी प्रवृति के लोग रहेंगे हम विश्व में वो रूतबा नहीं पा सकते जो यूरोपियनों के पास है। और ऐसा भी नहीं है कि हम ऐसा नहीं कर सकते, कर सकते हैं जैसे अमेरिका ने किया। अमेरिका कर गया तो आज राष्ट्रमंडल की सूची से बाहर हो गया, जबकि हम आज भी उसी सूची में खड़े हैं और यह सब इसलिए क्योंकि हमारी संस्कृति समस्या निवारक व् नाशक नहीं अपितु पल्ला झाड़क है|

यह तो हुई जाति और वर्ण भेद की बात, अब वो बात जिसको करने से आपको दैवीय व् प्रेरणात्मक शक्ति मिलती है और वो है नारी के प्रति लिंग-भेद को शून्य करने की बात|

मोटा-मोटा फर्क यही है कि यूरोपियन औरत को वस्तु, सम्पत्ति व् भोग्या नहीं समझते परन्तु इज्जत जरूर समझते हैं। और ये लोग युद्ध भी इज्जत के लिए ही करते हैं आधिपत्य के लिए नहीं, और इसके ही लिए इनके ‘ट्रॉय’ जैसे युद्ध विश्वविख्यात हैं। औरत को ले के चिंतित ये भी रहते हैं परन्तु सिर्फ उस हद तक जिस हद तक औरत असुरक्षित महसूस करे। जैसे ही औरत सुरक्षा के दायरे में आती है तो ये उससे बेफिक्र हो जाते हैं| फिर ये उसको स्वतंत्र छोड़ देते हैं|

जबकि हमारे यहाँ वैसे तो हर रंग-नश्ल-वर्ण सम्प्रदाय गुलामी के दौर के चलते सब भेद मिटा एक होने की कशमकश दिखाते रहे लेकिन जैसे ही आजादी पास आई "वही ढाक के तीन पात"| जैसे ही 1947 में आजादी मिली फिर से वही किस्से शुरू जिसकी वजह से देश गुलाम हुआ था। उसी सदियों पुरानी सभ्यता के वाहक फिर से सक्रिय हो गए और आज फिर से वही झूठ के पुलिंदों वाले नारी की सुरक्षा के प्रपंच घड़ने शुरू कर दिए। थोड़ा बहुत कुछ समाजों ने इस एकता को संभल के रखा हुआ था लेकिन सितम्बर 2013 में हुए मुज़फ्फरनगर के दंगों के बाद तो वो भी ख़त्म हो गई सी प्रतीत होती है|

यानी वही पुरानी संस्कृति फिर से करवट ले रही है समाज को अपनी गिरफ्त में जकड़ने को और हम, जिनको कि आगे बढ़ के इन पुरानी जकड़नों से बाहर आना चाहिए, फिर से इस नूरा-कुस्ती शैली वाली "पल्ला झाड़ सभ्यता" पे सवार हो लिए हैं|

हमें यह समझना होगा कि अगर आज भारत पे वित्तीय (आर्थिक) संकट से ले सामाजिक द्वेष, जमाखोरी से ले भ्रष्टाचार, औरत पे आपराधिकता से ले राजनैतिक गुलामी हावी होती जा रही है तो किसी पाश्चात्य सभ्यता के बढ़ते प्रभाव के चलते नहीं अपितु हमारी इसी "पल्ला झाड़" संस्कृति के फिर से मुखर होने के कारण|

देश में कहीं भी बलात्कार हो जाए या छेड़खानी की घटना, हमारे लिए उस समस्या का जड़ से निवारण मान्य नहीं रखता अपितु उसमें भी अपनी साफगोई कैसे ढूँढी जाए वो प्रपंच जरूरी होता है। कहीं बाबा-संत लोग इसमें पाश्चात्यता का असर ढूँढने लग जाते हैं तो कहीं फिल्मों वाले इसको समाज की संकीर्ण सोच पे मढ़ते नजर आते हैं, कहीं धर्म वाले इसमें साम्प्रदायिकता ढूँढने लग जाते हैं तो कहीं डेमोक्रेट कहलाने वाले समाज की रूढ़िवादिता पे ऊँगली ताने मिलते हैं, कोई इसमें कम कपड़ों और फैशन की वजह बता इसका पोस्टमोर्टम करता नजर आता है तो कहीं सरकारें यही ढूँढने में रह जाती है कि इसके लिए कौनसा विभाग या अधिकारी जिम्मेदार है, कोई पैतृक सत्ता पे चढ़ा डोलता है तो कोई नारी की अज्ञानता का रूदन करता है|

जबकि समस्या सारी हमारी सभ्यता के मूल सिद्धांतों में है जो औरत को सिर्फ निर्देशित करती हैं सुरक्षित नहीं। औरत को सिर्फ फर्ज बताती हैं अधिकार नहीं। औरत को सिर्फ देवी कहती हैं इंसान नहीं| औरत से सिर्फ त्याग मांगती है, स्वाभिमान नहीं|

और औरत को द्वितीय दर्जे पर रख कर खुद को स्वाभिमानी होने का अहंकारी दम्भ जब तक हमारी सभ्यता भरती रहेगी हमारे यहाँ कभी देवताओं का वास नहीं होगा; भारत यूरोपियनों की तरह स्वाभिमानी नहीं बन पायेगा|

और यही वो चीजें हैं जिनके हल यूरोपियन सदियों पहले निकाल चुके हैं, इसीलिए तब से ले आज भी विश्व पर उन्हीं की चलती है। उनकी इसलिए नहीं चलती कि उनके पास पैसा है, संसाधन है, व्यापार है, ताकत है या रूतबा है अपितु इसलिए चलती है क्योंकि उनके पास पैसा-संसाधन-व्यापर-ताकत-रूतबा पाने का जज्बा पैदा करने का सूत्र है जो कि इनकी इन सब उपलब्धियों की जड़ों में वास करता है और वो है अपनी नारियों को लिंग-भेद शून्यता देना और सवधर्मियों में रंग-वर्ण भेद ना करना।

आप पानी के ऊपर तैर रहे जिस आइसबर्ग (iceberg) की चोटी (tip) देखकर विष्मित हैं मैंने उसकी पानी के नीचे की गहराई इस लेख में नापने, देखने और दिखाने की कोशिश करी है, मैं इस प्रयास में कितना सफल हुआ यह आप निर्धारित करें| हाँ अंत में एक बात और जरूर कहूँगा कि सभ्यताएं सामाजिक परिस्थितियों के साथ-साथ प्राकृतिक व् भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से बना करती हैं। मैंने इस लेख में सिर्फ सामाजिक परिस्थितियों का वर्णन किया है। भविष्य का पूरा खाका क्या हो उसके लिए प्राकृतिक व् भौगोलिक परिस्थितियाँ भी परिदृश्य में रखनी होंगी| और ये परिस्थितियाँ कहती हैं कि कोई भी दो सभ्यताएं एक जैसी नहीं हो सकती परन्तु उनमें लिंग-भेद व् नश्ल-वर्ण भेद शून्य जरूर हो सकता है। इसलिए इस लेख से अपनी सभ्यता की समस्याओं के समाधान के रास्ते तो निकाले जा सकते हैं; परन्तु अंत:पुर की मंजिल मिलेगी आपके अंत:मन में ही|

निष्कर्ष: बांटों और राज करो की नीति के तहत हम गुलाम नहीं किये गए थे अपितु बांटों और राज करो की नीति हमारे यहाँ पहले से विद्यमान थी इसलिए हम गुलाम हुए थे। हम बंटे हुए थे जाति के नाम पर, हम बंटे हुए थे नश्ल-वर्ण के नाम पर और सबसे घातक हम बंटे हुए थे लिंग के नाम पर। जो कि आज भी बदस्तूर जारी है|


जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर  


लेखक: पी. के. मलिक

दिनांक: 23/10/2013

प्रकाशन: निडाना हाइट्स

प्रकाशक: नि. हा. शो. प.

उद्धरण:
  • नि. हा. सलाहकार मंडल

साझा-कीजिये
 
जानकारी पट्टल - मनोविज्ञान (बौधिकता)

मनोविज्ञान जानकारीपत्र: यह ऐसे वेब-लिंक्स की सूची है जो आपको मदद करते हैं कि आप कैसे आम वस्तुओं और आसपास के वातावरण का उपयोग करते हुए रचनात्मक बन सकते हैं| साथ-ही-साथ इंसान की छवि एवं स्वभाव कितने प्रकार का होता है और आप किस प्रकार और स्वभाव के हैं जानने हेतु ऑनलाइन लिंक्स इस सूची में दिए गए हैं| NH नियम एवं शर्तें लागू|
बौद्धिकता
रचनात्मकता
खिलौने और सूझबूझ
जानकारी पट्टल - मनोविज्ञान (बौधिकता)
निडाना हाइट्स के व्यक्तिगत विकास परिभाग के अंतर्गत आज तक के प्रकाशित विषय/मुद्दे| प्रकाशन वर्णमाला क्रम में सूचीबद्ध किये गए हैं:

HEP Dev.:

हरियाणवी में लेख:
  1. कहावतां की मरम्मत
  2. गाम का मोड़
  3. गाम आळा झोटा
  4. पढ़े-लि्खे जन्यौर
  5. बड़ का पंछी
Articles in English:
  1. HEP Dev.
  2. Price Right
  3. Ethics Bridging
  4. Gotra System
  5. Cultural Slaves
  6. Love Types
  7. Marriage Anthropology
हिंदी में लेख:
  1. धूल का फूल
  2. रक्षा का बंधन
  3. प्रगतिशीलता
  4. मोडर्न ठेकेदार
  5. उद्धरण
  6. ऊंची सोच
  7. दादा नगर खेड़ा
  8. बच्चों पर हैवानियत
  9. साहित्यिक विवेचना
  10. अबोध युवा-पीढ़ी
  11. सांड निडाना
  12. पल्ला-झाड़ संस्कृति
  13. जाट ब्राह्मिणवादिता
  14. पर्दा-प्रथा
  15. पर्दामुक्त हरियाणा
  16. थाली ठुकरानेवाला
  17. इच्छाशक्ति
  18. किशोरावस्था व सेक्स मैनेजमेंट
NH Case Studies:
  1. Farmer's Balancesheet
  2. Right to price of crope
  3. Property Distribution
  4. Gotra System
  5. Ethics Bridging
  6. Types of Social Panchayats
  7. खाप-खेत-कीट किसान पाठशाला
  8. Shakti Vahini vs. Khaps
  9. Marriage Anthropology
  10. Farmer & Civil Honor
नि. हा. - बैनर एवं संदेश
“दहेज़ ना लें”
यह लिंग असमानता क्यों?
मानव सब्जी और पशु से लेकर रोज-मर्रा की वस्तु भी एक हाथ ले एक हाथ दे के नियम से लेता-देता है फिर शादियों में यह एक तरफ़ा क्यों और वो भी दोहरा, बेटी वाला बेटी भी दे और दहेज़ भी? आइये इस पुरुष प्रधानता और नारी भेदभाव को तिलांजली दें| - NH
 
“लाडो को लीड दें”
कन्या-भ्रूण हत्या ख़त्म हो!
कन्या के जन्म को नहीं स्वीकारने वाले को अपने पुत्र के लिए दुल्हन की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए| आक्रान्ता जा चुके हैं, आइये! अपनी औरतों के लिए अपने वैदिक काल का स्वर्णिम युग वापिस लायें| - NH
 
“परिवर्तन चला-चले”
चर्चा का चलन चलता रहे!
समय के साथ चलने और परिवर्तन के अनुरूप ढलने से ही सभ्यताएं कायम रहती हैं| - NH
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