व्यक्तिगत विकास
 
EHhr-marmmt.html
EH.html
अबोध युवा-पीढ़ी
!!!......एक बच्चा जन्म के वक्त बच्चा नहीं होता, तथापि यह तो उसको विरासत में मिलने वाले माहौल व् परिवेश से निर्धारित होता है| एक बच्चे को माता-पिता जितनी समझ जन्म से होती है| अत: माता-पिता उसको उस स्तर का मान के उसका विकास करें|......!!!
आप यहाँ हैं: दहलीज > व्यक्तिगत विकास > अबोध युवा-पीढ़ी
By: P. K. Malik on 14/06/2013 (updated on: 07/06/2015) for NHReL
अबोध युवा-पीढ़ी (जवानी में नहीं तो फिर कब करेंगे - सिंड्रोम)
एक हरयाणवी बुजुर्ग ने लगाई वीर्य-प्रबंधन पे मेरी क्लास

विकृत आधुनिकता, स्थानीय हरियाणवी संस्कृति के नई पीढ़ी को स्थानांतरण के अभाव के चलते पैदा हुई आध्यात्म तप और चिन्तन की रिक्तता, दूसरों (पड़ोसियों, सहकर्मियों, सहपाठियों, सहविचरणियों) से बड़ा दिखने या बराबर का बनने की अस्थाई चंचलता और समाज में किसी कालजयी प्रेरणादायक सामाजिक सभ्यता के स्तंभ की अनुपस्थिति का हरियाणा के ग्रामीण आंचल में ईतना दुष्प्रभाव हो चुका है कि अबोध युवा-पीढ़ी (12 से 18 साल तक खासकर) नें अपने अनैतिक कार्यों की वैधता के लिए एक नया तकिया-कलाम गढ़ लिया है कि "जवानी में नहीं करेंगे तो कब करेंगे?" और यह तकिया कलाम बनाया गया है इन चीजों के लिए:

1) जवानी में नशा नहीं करेंगे तो फिर कब करेंगे?
2) इसी उम्र में आशिकी नहीं मारेंगे तो फिर कब मारेंगे (यहाँ अमर्यादित व् असामाजिक आशिकी के चलन से मेरा सम्बोधन है)|

यह तकिया-कलाम दुर्भाग्य से जिन चीजों के लिए होना चाहिए था उनके लिए नहीं हुआ, जैसे कि इस उम्र में अबोध जवानी की अवस्था में तप करना नहीं सीखेंगे तो कब सीखेंगे, शारीरिक इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना अब नहीं सीखेंगे तो कब सीखेंगे, जीवन के ध्येय (career) की जड़ें अभी से नहीं सींचेंगे तो फिर वह पेड़ कब बनेगा (जिसके लिए पढाई से ले, शारीरिक अनुशासन में स्वयं को ढालना होता है)| परन्तु काल की अवनति ऐसी पसर चुकी है कि ग्रामीण आँचल नें जैसे दूर की कौड़ी के युवा बनाने ही बंद कर दिए हों| किसी इक्का-दुक्का को छोड़ कर, सारे गरम पानी में उठते बुलबुले की भांति उछल के जब उपरी शीतलता को छूते हैं तो वापिस उसी पानी में समां जाते हैं|

आखिर इन पहलुओं पर समाज में खुल-कर चिंतन क्यों नहीं हो रहा? गावों के बुजुर्ग तो इतने निर्जीव और आशाहीन हो गए हैं कि वो घुण के साथ चना पीसने लग गए हैं अर्थात गाँव के शरीफ और शालीन बच्चों को भी शरारती-तत्वों की श्रेणी में खड़ा कर तोलने लग गए हैं| एक बुजुर्ग से गाँव में बच्चों के लिए एक सुविधा-संपन खेल-क्रीडा केंद्र बनाने की बात कही तो उलाहना देने लगे कि क्या लाभ इनमें से अधिकतर तो जार बन चुके हैं, इनके लिए सुविधाएँ बना भी दी तो सारी मेहनत को जारी में खो देंगे?

जारी का जब उन्होंने प्रश्न उठाया तो मैंने पूछा कि जारी को तो आजकल आशिकी कहते हैं, तो भड़कते हुए बोले की आशिकी जैसी पाक चीज को जारी का चोला पहना कलंकित मत करो, बेटा| वो भावनाओं में बहते हुए कहने लगे कि तुम्हें क्या लगता है कि तुम्हारी (लेखक की) पीढ़ी नें ही आशिकी सिखाई है दुनिया को? हम लोग क्या जानवर थे कि एक असभ्य की भांति सम्भोग किया और तुम (लेखक) पैदा हो गए? (लेखक एक पल को तो अचम्भे में पड़ गया कि ऐसे भोले से इंसान को जिसको कि आज के तथाकथिक NGO चलित जमाने नें प्यार के दुश्मन करार दे दिया है उनके अंदर प्यार को ले के इतना दर्द?)

मर्म के स्पर्श से उदरित उस बुजुर्ग नें आगे कहना जारी रखा और कहने लगे बेटा मुझे एक बात बताओ, तुम तो एक कृषक समाज में जन्मे हो हर चीज अपनी आँखों से देखी है, क्या गाँव का सरकारी सांड हल में उतना लम्बा चल सकता है जितनी देर कि एक उन्ना बनाया हुआ बैल? मैंने जब पूछा कि उन्ना क्या होता है तो वो बोले कि जिस बैल की वीर्यपात की रग को कुंध (यानी बंद) कर दिया जाए उस बैल को उन्ना बैल कहते हैं| और जब तक बैल को उन्ना नहीं बनाया जाता वो हल में घंटो, दिन-रातों जुत के हल को नहीं खींच सकता| वो बोले कि गोह्के (बछड़े-सांड) में इतनी उत्तेजना होती है कि अगर उनको उन्ना ना बनाया जाये तो वो हल में जुतें ही नहीं अपितु उत्तेजना-वश इतने उछलें कि वो हल की फाल को खुद अपने ही पैरों में मरवा बैठें| इस पर मैंने पूछा कि भैसों को तो कभी उन्ना नहीं बनाया जाता; तो कहने लगे कि तो फिर भैंसे कहाँ हल में जोते जाते हैं? और इसका दूसरा कारण उन्होंने भैंस के रंग को भी बताया| बोले कि क्योंकि कला रंग सूर्या की किरणों को सबसे अधिक सोखता है तो इससे भैंसा ज्यादा देर धूप में काम नहीं कर सकता क्योंकि फिर उसका शरीर सूर्य किरणों को समावेशित करने की वजह से उबाल उठता है, जबकि बैल अधिकतर सफ़ेद होते हैं और सफ़ेद रंग इन किरणों को स्थानांतरित करता रहता है और यही मुख्य कारण है कि बैल हल में जुत्ते आये, वरना जोर आजमाइश में भैंसा लम्बा चलता है| जैसे कि पश्चिमी यू. पी. में भरी-भरकम गन्ने की लॉरियों को भैंसे ही कीचड़ से निकालते हैं, बैल नहीं|

तो वो इस उदहारण से बात जोड़ते हुए आगे कहते हैं कि जिस तरीके से खेतों में पिलने के लिए एक बैल के वीर्य का पात बंद किया जाता है तो वो लम्बा चलता है, उसी तरह खेती करने की इच्छा वाले या खेती में कारोबार करने वाले इंसान के लिए भी अति-अनिवार्य है कि वो इस वीर्य का जितना हो सके उतना संचय करे अन्यथा खेती में तो मन-वांछित लाभ होगा ही नहीं साथ ही चारित्रिक पतन, आलस, इर्ष्या भी इंसान में घर कर लेती है| और खेती ही नहीं किसी भी कारोबार पढाई हो, व्यापार हो या जो भी हो अगर आपको उसमें उत्तम श्रेणी का बनना है तो वीर्य-प्रबंधन आना बहुत जरूरी है| और इसीलिए तो पुराने जमाने में गावों में जब भी नौटंकियाँ आती थी उनमें बच्चों को नहीं जाने दिया जाता था| क्योंकि इन नौटंकियों में जो कामुक नृत्य होते थे उनसे शारीरिक नियन्त्रण विच्छेदित हो जाता था, क्योंकि अबोध-जवानी की उम्र वृक्ष की टहनी पर झूल रहे पत्ते की तरह होती है कि जिधर की भी हवा का झोंका आया उधर ही बह निकला| और मैं माथा पकड़ सोचने लगा कि तो यह कारण होता था मेरे दादा जी की हर उस ना के पीछे जिसमें मैं उनसे नौटंकी देखने जाने की जिद्द किया करता था और वो मुझे डांट देते थे|

मैंने आगे पूछा कि आप उलाहने वाली मुद्रा में कह रहे थे कि आशिकी क्या तुमनें ही सिखाई है दुनिया को? तो वह मूछों पर तांव देते हुक्के की गुड़गुड़ाहट लेते हुए ऐसे रोमांचित हुए जैसे रेगिस्तान की लू में सिसकते पौधे पर किसी नें पानी डाल दिया हो और रौब में आते हुए कहने लगे कि क्या तुम आज के जमानें में किसी गली जाती महिला की पीठ पर भाग के चढ़ सकते हो? मेरा अकस्मात विनय फूटा कि क्या आपको मेरी पीठ तुड्वानी है या मुझे जेल भिजवाना है? तो वो बोले कि ये देख लो तुम्हारे तथाकथित आधुनिक किन्तु सुरक्षा, सहनशीलता और निश्छलता से रहित जमाने की सच्चाई| फिर उन्होंने विजयी मुद्रा बनाते हुए कहा कि तेरे चचेरे पड़दादा इतने नौशिखिये होते थे कि गाँव की गली में चलती किसी भी औरत की पीठ पे जा चढ़ते थे और उल्लास का आलम ये होता था कि कोई बुरा नहीं मानती थी, ना कोई उलाहना होता था और वासना तो लेषमात्र भी नहीं| एक बात याद रखना बेटा जहां वासना हुई वहाँ आशिकी और प्यार नहीं होता| और आज की कच्ची उम्र से ही आशिकी में पड़ने वाली अधिकतर पीढ़ी आशिकी की चरम-प्रकाष्ठा के मार्ग में पड़ने वाली वासना के सागर को ही पार नहीं कर पाती तो आशिकी क्या ख़ाक करेंगे?

खेतों-खलिहानों में काम करते हुए, तीज-त्योहारों में अल्हड़ और मस्तियाँ करते हुए तेरे ही गाँव के कितने अनगिनत किस्से सुनाऊं जिनमें सिर्फ और सिर्फ आशिकी और प्यार हुआ करता था वासना तिल के दाने के बराबर भी नहीं| तुम युवा वर्ग ही देख लो आज के दिन, तेरी कितनी ऐसी भाभियों के पति यानी तेरे भाई हैं जो अपनी बीवियों को होली-फाग के दिन फाग खेलने देते हैं? कितने ऐसे हैं जो उनपे रंग डालने देते हैं? मैंने कहा कि सिर्फ 4-5 भाभियों के साथ खेलता हूँ, तो कहने लगे और गाँव में भाभियाँ कितनी हैं तेरी? तो मैंने उत्तर दिया सैंकड़ों में|

तो बुजुर्ग जैसे फूट पड़ा और झाड़ने लगा कि यही वो आधुनिकता है क्या जिसका चोला ओढ़े फिरते हो और समाज में आशिकी के पैरोकार बने फिरते हो? अरे हमारे जमाने में 4-5 तो वो होती थी जिनको कि देवर इतनी नैतिकता से मजबूर कर देते थे कि उनको कोरडा ले घरों से मैदान में उतरना ही पड़ता था होली खेलने को, और तुम अपने आप आपको आशिकी-प्यार के धनी कहते हो| जाओ बेटा जाओ और ढूंढ के लाओ उन घरों की चार-दीवारियों में जा सिकुड़े प्यार और खुलेपने को|

बेटा एक बात तो जरूर सीख ले आज इस बुजुर्ग से कि तुम लोग कम कपड़ों के पहनावे की आशिकी के पैरोकार हो और हम दिलों और अंतरात्मा की आशिकी के पैरोकार होते थे| तुम्हारी आशिकी तो कम कपड़ों में ही औरतों को देख नालों में बह निकलती है, जबकि हमारी आशिकी नालों में नहीं दिलों में बहती थी बेटा| मैं तो ऐसा जवाब सुन के भोंचक्का रह गया, कितनी बड़ी मील के पत्थर की बात कह दी इन बुजुर्ग ने|

अरे बेटा आज के जमाने में लोग आशिकी और नौशिखियेपन के जितने कंगाल हुए इतने मैंने कभी नहीं देखे| वो आगे कहते हैं कि क्या तुम आज के दिन अपनी बहन-बहु-बेटियों को गाँव के कुँए-जोहड़ों पे स्नान के लिए भेज सकते हो? मैंने चिंतित होते हुए कहा कि भेजना अरे मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता| तो वो कहते हैं जरा याद करो आज से 15-20 साल पहले कार्तिक के महीनों में कार्तिक स्नान के लिए गाँव-के-कुँए-जोहड़ों पर टोलियों में जाती बहु-बेटियों की स्वर-लहरियाँ| और एक पल को तो मैं भी गौरवान्वित हो ऊठा क्योंकि वो बचपन में सुनी लहरें आज भी मेरे जहन में कोंधती हुई सी दिखाई दी| मुझे सब स्मरण हो उठा कि कैसे सुव्यवस्थित तरीके से हर चीज होती थी और आदर, सम्मान और सयंम की तो ऐसी प्रकाष्ठा होती थी कि मर्द उन कुँए-जोहड़ों की तरफ जाने से कतराते थे जिधर बहु-बेटियाँ कार्तिक स्नान कर रही होती थी|

फिर वो कहने लगे कि कृषि का कारोबार ही ऐसा है कि इसमें मानसिक के साथ-साथ शारीरिक सुदृढ़ता जरूरी होती आई जो आज की अंधी आधुनिकता में बही जा रही पीढ़ी समझना ही नहीं चाहती| अरे बेटा नया मकान भी जब बनाया जाता है तो उसको तराई-लिपाई-धुप सिंकाई करके और उसके नीचे एक सुदृढ़ नींव कूट-कूट के जमा के ही तो मकान में रहने के लिए प्रवेश किया जाता है? और यही कहानी इस शरीर रुपी मकान की है|

लेकिन आज के जमाने के तथाकथित अंधों में काणे राजों जैसे कुछ चुनिन्दा NGOs और communal संगठन तो इतने धैर्यहीन और उतावले दीखते हैं जैसे समाज से इंसान और जानवर का भेदभाव मिटा दोनों को एक ही श्रेणी में ला खड़ा कर देना चाहते हों और बच्चे को पैदा होते ही टारजन समझते हों कि इसके शरीर और चेतना को जो चाहे परोस दो इसकी सेहत और व्यक्तित्व पे तो कोई फर्क ही नहीं पड़ेगा| जो अबोध उम्र वीर्य-धैर्य को संचित कर तपा के एक सुसंगठित शरीर और दिमाग बनाने की होती है उसमें ही इनका पात हो रहा होगा तो भला कैसे कोई समाज राष्ट्र के लिए राष्ट्र के प्रणेता पैदा कर पायेगा?

इस पर मैंने कहा लेकिन समाज को ऐसी अंधी आंधी में तो नहीं छोड़ा जा सकता और अबोध उम्र की युवा पीढ़ी से तो मुंह मोड़ के ये कतई संभव नहीं?

हाँ संभव नहीं, लेकिन तेरे जैसे धैर्य से सुनने वाले युवा भी तो नहीं| तुम तो ढीठ हो पक्के इसलिए मुझे सुन गए वरना आज के युवाओं का तो ये आलम हो रखा है कि हम जैसे बुजुर्ग तो उनको किसी म्यूजियम में सजा के रखने वाली कृति से ज्यादा कुछ लगते ही नहीं| शहरों में पढने जाते हैं और वापिस आने पर हमसे ढंग से बातें भी नहीं करते| माना हममें अख्खड़पना है पर बेटा यह अख्खड़पना हमनें पूरी जिंदगी तप के पैदा किया है| और जब तक तेरे जैसे हमारे अक्खड़पने को झेलते हुए हमें सुनेंगे ही नहीं तो बताओ कैसे पीढ़ियों का अन्तराल (generation gap) न्यून होगा? और उसपे ये तूफ़ान से भी तेज बहती अंधी आधुनिकता की आंधी जो हम ग्रामीण बुज्रुगों को तो जैसे समूल-मिटाने को उतारू है, और शहर में गया काबिल ग्रामीण युवा अपने गावों की सुध ही नहीं लेगा तो कुंठा तो हमें घेरेगी ही ना बेटा?

मैंने इसपे उनसे कहा कि आपने आपके ज़माने में खुलेपन और आशिकी के जितने किस्से सुनाये उन्होंने तो मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हम आज के आधुनिक वाकई में दिलों वाली आशिकी करते हैं या कम कपड़ों पे ही आँखें सेंकने को आशिकी समझ बैठे हैं?

बुजुर्ग ने आगे कहा कि उड़ान उन्हीं ऊँचाइयों तक भरी जाती हैं जहां तक पंखों को आंच ना लगे वरना पौराणिक कथा रामायण के अनुसार सूर्य को छूने की अंधी चेष्टा में तो जटायु के अग्रज सम्पाती भी अपने पंख जला बैठे थे| या यूं कहो कि वीर्य के मद में मस्त हो उड़ने वालों का सम्पाती जैसा ही हसर होता है, वो काल के ग्रास में ऐसे समा जाते हैं कि उनको संभालने वाला भी युगों तक कोई नहीं मिलता| सूर्य को छूना तभी संभव होता है जब उसकी शक्ति का आभास करके ही उससे मुकाबला किया जाए और मानव की वो शक्ति होती है उसका वीर्य, इसका जितना संचय होगा उतना इसान बलवती-कर्मवती-शोर्यपति और विश्वपति बन पायेगा| और इसके संचय की सबसे उत्तम आयु यही अबोध-युवावस्था होती है, जिसको कि आज का युवा यह कह के खो रहा है कि "जवानी में नहीं करेंगे तो कब करेंगे"| इनको जरूरत है आशिकी और वासना में अंतर समझ समाज की सभ्यता को कायम रखते हुए जीवन-आनंद उठाने की|

बुजुर्ग की बातें सुनके जो निष्कर्ष मेरे सामने आया उसनें मुझे समाज के कई अनछुए पहलुओं जिनको कि हम कई बार आधुनिकता मान टाल जाते हैं तो कई बार धर्म-समाज की परिणति, पर हमें ध्यान केन्द्रित करने होंगे जैसे कि


  1. हरियाणा का कृषक समाज धर्म के नाम पे मंदिरों-पुजारियों को दान देने वाला सबसे अग्रणी समाज रहा है| लेकिन आज तक दान यह कहके दिया जाता रहा है कि "दान कह के नहीं किया जाता अर्थात दान में स्वार्थ नहीं होता", लेकिन मैं कहता हूँ कि "बिना रोये तो माँ भी बेटे को दूध नहीं पिलाती"| और इसलिए तो हमारे कृषक समाज की राजकीय-शासकीय-युद्ध-शोर्यों-विजयों-योद्धेयों-कलाओं का इतिहास-सभ्यता-संस्कृति ना तो ढंग से लिखी गई और ना ही इसका प्रचार किया गया, क्योंकि किसी ने दान देते वक्त यह सुनिश्चित ही नहीं किया कि मेरा दान मेरे इतिहास-सभ्यता-संस्कृति को लिखने-संजोने और गाने में भी व्यय किया जाए| किसी ने इस बात का संज्ञान ही नहीं लिया कि खुद को यदा-कदा समाज के संरक्षक-संवाहक कहने वाले पंडितों-पुजारियों नें हमारी इतिहास-सभ्यता-संस्कृति को क्यों आगे नहीं बढाया? क्यों हरियाणा का कृषक समाज इतना दान-पुन करने पर भी अधार्मिक (anti-religious) कहलाया?

    यहाँ पर आप कहेंगे कि प्यार-आशिकी का दान-पुन से क्या नाता? नाता है सीधा-सीधा नाता है, क्योंकि
    दान-पुन से ही इतिहास-सभ्यता-संस्कृति पाले जाते हैं, जिससे वो विश्वास भरा वातावरण बनता है कि फिर उसमें स्वच्छ प्यार पलता है और स्वच्छ और सभ्य प्यार से दिलों वाली (वासना वाली नहीं) आशिकियाँ चलती हैं, किस्से बनते हैं, उल्लास उमड़ते हैं और समाज में खुलापन आता है, वही खुलापन जिसकी अंधी आधुनिकता का लोलीपोप दिखा के आपको डराया जा रहा है और मुझे इस बुजुर्ग से बात करके अहसास हुआ कि हम अंधे खुलेपन के चक्कर में कैसे दिलों का खुलापन बिसरा चुके हैं| इसलिए अब कृषक समाज को अपने दान-पुन का हिसाब लेना होगा और उसको अपने इतिहास-सभ्यता-संस्कृति सम्पन्नता पे लगवाना होगा अन्यथा जो हाल आज के ग्रामीण बुजुर्ग का हो रहा है कल को यह अंधी आधुनिकता वाला समाज तेरा-मेरा-हमारा भी यही हाल करेगा| इसलिए अब ये बंदोबस्त कृषक और हरियाणवी समाज को करना ही होगा|

  2. बच्चों और अबोध युवा को जानवरों और इंसानी प्यार में अंतर समझाना होगा| आखिर भगवन नें तुमको मानव योनि में पैदा किया है उसका कोई तो अनुग्रह रहा होगा| "प्यार अँधा होता है" का सहारा ले समाज के हर अमर्यादित आकर्षण को प्यार बताने वालों को समझाना होगा कि प्यार और वासना में कुछ अंतर होता है| और "माँ औलाद को बिना देखे गर्भ में ही प्यार करने लगती है" वाला प्यार ममता कहलाता है आशिकी नहीं; ऐसी कहावतों को आधार-हीन आशिकी से जोड़ने वालों को ममता और आशिकी का अंतर भी समझाना होगा|

  3. गाँव-गोत(गोत्र)-धर्म में निर्धारित मान-मान्यताओं को टाल जो प्यार ना ढून्ढ सकता हो तो फिर उसमें काहे का धैर्य, काहे का वो वीर्यवान| समाज के पुरोधाओं ने ये सीमायें हममें सहनशक्ति, निर्णय शक्ति और वीर्य शक्ति का संचय हो उत्तम बुद्धि और विवेकशील चेतना बने इसलिए बनाए थे, इनको रूढ़ी मत समझिये| ये नियम तो सुच्ची आशिकी के रास्ते में पड़ने वाले वासना के सागरों को पार कर सुच्ची आशिकी तक पहुंचनें के साधन हैं, इनका पालन कीजिये वरना जिंदगी भर आप प्यार और वासना में कभी अंतर ही नहीं कर पायेंगे| आखिर इसी को तो मानव सभ्यता कहते हैं वरना मान्यताओं को ना मान के करने वाले प्यार और एक जानवर के प्यार में अंतर ही क्या हुआ?

  4. बड़े-बड़ेरों को अपने बच्चे-नातियों को एक तराजू में ना तोल घुण और चने में अंतर करना होगा, और करना सिखाना भी होगा| अगर बड़े अपने ही वंश से ऐसे मुंह मोड़ के बैठेंगे तो फिर उनको कौन संभालने आएगा| बड़े इस बात को समझें कि अगर बच्चे फसल हैं तो आप उसकी बाड़ हैं और बाड़ ही अगर खेत से मुंह मोड़ लेगी तो फिर उस खेत का कौन रखवाला? जैसे आप फसल में उगी खरपतवार को उखाड़ा करते हैं वैसे ही बच्चों के इर्द-गिर्द भरमाई हुई विकृत आधुनिकता की आंधी के बादल छांट के उनको साफ़ आसमान नहीं दिखायेंगे तो फिर क्या भविष्य होगा आपके बच्चों का?

  5. गाँव के लोगों को उनमें घर कर चुकी व्याध की तरह वाली छुपी मानसिकता की आपराधिक दृष्टि को छोड़, गाँव के प्राचीन स्वर्ण स्तम्भ की भाईचारा वाली मान्यता के तहत गाँव के हर बच्चे-बच्ची को अपनी औलाद की तरह राह दिखानी होगी| आजकल क्या हो रखा है कि हर कोई जैसे घरों में दुबका पड़ोसी के विनाश की बाट जोह रहा हो| याद रखिये यह रव्वैया कल को आपके बच्चे को भी शिकार बना सकता है|

  6. आपके गाँव में टी. वी. पर कैसे कार्यक्रम दिखाए जाएँ और कैसे नहीं इसकी बागडोर अपने हाथ में लीजिये| हर गाँव के साथ कमिटी बनाई जाए और वो गाँव में हर चैनल या केबल टी.वी. वाले से सम्पर्क साधे और उसको अपने दिशा-निर्देश के नीचे ले| गाँव में टी.वी. पे क्या दिखाया जाए इसके लिए समय-समय पर सर्वेक्षण करवाते रहने होंगे| और उन चीजों को तो बिलकुल बंद करवाना होगा जो हमारी संस्कृति से परे जा कर या उनको तोड़-मरोड़ कर के धूमिल छवि में प्रस्तुत करते हैं, जैसे कि अश्लील परिकल्पना और भोंडी भाषा-बोली के कार्यक्रम|

    गाँव के रिटायर्ड नौकरी-पेशा लोग, पढ़े लिखे सुथरी छवि के वृद्ध लोग और जागरूक युवाओं के संगठन बना के इन चीजों पर सर्वेक्षण-परिक्षण एवं निरिक्षण बिठाने होंगे| क्योंकि टी.वी. पर जो कुछ दिखाया जा रहा है उसका जब तक इस तरीके से छलना नहीं होगा तो बच्चे तो उसी को संस्कृति मान बैठेंगे| जब तक बड़े-पढ़े लिखे लोग इन चीजों पर चर्चा करके विरोध नहीं दर्ज कराएँगे तो बच्चे तो भटकेंगे ही, क्योंकि बिना किसी निरिक्षण व् विरोध के जब ये चीजें प्रसारित हो जाती हैं तो बच्चे इन्हें ही सर्वश्रेष्ठ मानने लग जाते हैं और यहीं से टकराव शुरू होता है genenration gap का|


जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर  


साझा-कीजिये
 
जानकारी पट्टल - मनोविज्ञान (बौधिकता)

मनोविज्ञान जानकारीपत्र: यह ऐसे वेब-लिंक्स की सूची है जो आपको मदद करते हैं कि आप कैसे आम वस्तुओं और आसपास के वातावरण का उपयोग करते हुए रचनात्मक बन सकते हैं| साथ-ही-साथ इंसान की छवि एवं स्वभाव कितने प्रकार का होता है और आप किस प्रकार और स्वभाव के हैं जानने हेतु ऑनलाइन लिंक्स इस सूची में दिए गए हैं| NH नियम एवं शर्तें लागू|
बौद्धिकता
रचनात्मकता
खिलौने और सूझबूझ
जानकारी पट्टल - मनोविज्ञान (बौधिकता)
निडाना हाइट्स के व्यक्तिगत विकास परिभाग के अंतर्गत आज तक के प्रकाशित विषय/मुद्दे| प्रकाशन वर्णमाला क्रम में सूचीबद्ध किये गए हैं:

HEP Dev.:

हरियाणवी में लेख:
  1. कहावतां की मरम्मत
  2. गाम का मोड़
  3. गाम आळा झोटा
  4. पढ़े-लि्खे जन्यौर
  5. बड़ का पंछी
Articles in English:
  1. HEP Dev.
  2. Price Right
  3. Ethics Bridging
  4. Gotra System
  5. Cultural Slaves
  6. Love Types
  7. Marriage Anthropology
हिंदी में लेख:
  1. धूल का फूल
  2. रक्षा का बंधन
  3. प्रगतिशीलता
  4. मोडर्न ठेकेदार
  5. उद्धरण
  6. ऊंची सोच
  7. दादा नगर खेड़ा
  8. बच्चों पर हैवानियत
  9. साहित्यिक विवेचना
  10. अबोध युवा-पीढ़ी
  11. सांड निडाना
  12. पल्ला-झाड़ संस्कृति
  13. जाट ब्राह्मिणवादिता
  14. पर्दा-प्रथा
  15. पर्दामुक्त हरियाणा
  16. थाली ठुकरानेवाला
  17. इच्छाशक्ति
  18. किशोरावस्था व सेक्स मैनेजमेंट
NH Case Studies:
  1. Farmer's Balancesheet
  2. Right to price of crope
  3. Property Distribution
  4. Gotra System
  5. Ethics Bridging
  6. Types of Social Panchayats
  7. खाप-खेत-कीट किसान पाठशाला
  8. Shakti Vahini vs. Khaps
  9. Marriage Anthropology
  10. Farmer & Civil Honor
नि. हा. - बैनर एवं संदेश
“दहेज़ ना लें”
यह लिंग असमानता क्यों?
मानव सब्जी और पशु से लेकर रोज-मर्रा की वस्तु भी एक हाथ ले एक हाथ दे के नियम से लेता-देता है फिर शादियों में यह एक तरफ़ा क्यों और वो भी दोहरा, बेटी वाला बेटी भी दे और दहेज़ भी? आइये इस पुरुष प्रधानता और नारी भेदभाव को तिलांजली दें| - NH
 
“लाडो को लीड दें”
कन्या-भ्रूण हत्या ख़त्म हो!
कन्या के जन्म को नहीं स्वीकारने वाले को अपने पुत्र के लिए दुल्हन की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए| आक्रान्ता जा चुके हैं, आइये! अपनी औरतों के लिए अपने वैदिक काल का स्वर्णिम युग वापिस लायें| - NH
 
“परिवर्तन चला-चले”
चर्चा का चलन चलता रहे!
समय के साथ चलने और परिवर्तन के अनुरूप ढलने से ही सभ्यताएं कायम रहती हैं| - NH
© निडाना हाइट्स २०१२-१९